पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५५

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चंद्रगुप्त -अब तुमसे क्या छिपायें, सुनो। जब मृग के पीछे मैं बहुत दूर निकल गया, तब मुझे मालूम हुआ कि मैं जंगल की सीमा पर चला आया हूं। अस्तु, मैं थोड़ी देर तक वहाँ ठहर गया क्योंकि मृग झाड़ी में छिप गया था और मैं भी शान्त हो गया था। अभी थोड़ी देर भी नहीं हुई थी कि मृग घोड़ों को टाप सुनकर झाड़ी में से निकलने लगा। मैंने भी अपना धनुष चढ़ा कर ज्यों ही तीर छोड़ना चाहा कि, हाय, मैं स्वयं घायल हो गया। (चुप हो जाता है) चंडविक्रम-हां, फिर क्या हुआ ? कहिये न, इसी से तो मैं समझता हूँ कि आप छिपाना चाहते हैं। चंद्रगुप्त-क्या कहें ! उसी ममय मेरे सामने से सुंदरियों का एक झुण्ड अपने घोड़ों को दौड़ाता हुआ निकल गया । चंडविक्रम ! मैं तो अबाक्-सा रह गया। मुझे मालूम हुआ कि नन्दनकानन से भूलकर अप्सरायें 'स घोर कानन में चली आयी हैं। अहा ! उसका लावण्य तो मैं कह नहीं सकता जो सब के आगे काले घोड़े पर सवार होकर नीलधन की चपला को लजा रही थी। [पद्य लावनी] वे खुले अलक मारुत से क्रीड़ा करते । मुखरूप-सिन्धु में लहरों को अनुहरते ॥ था रूप मिला परिमल से प्रेम-भरा था। वर्षा-कानन सा निर्मल हुआ हरा था। राका वसन्त-सा मधुर, तीक्ष्ण दिनकर-सा । गम्भीर शान्ति-संगीत सुधामय स्वर-सा ।। आकर्षण था उस चन्द्रकान्त में ऐसा। खिंच जाय हृदय लोहा का भी हो कैसा । अहा, वह नैसर्गिक सौन्दयं क्या फिर भी देखने को मिलेगा। (नेपथ्य में कोलाहल । सैनिक का प्रवेश) सैनिक-महाराज की जय हो। शत्रुओं ने अचानक आक्रमण कर दिया है । सेनापति सिंहनाद सेना लेकर अग्रसर हो रहे हैं । चंद्रगुप्त-(शीघ्रता से) जल्दी, घोड़ा खींचने के लिए कहो। चंडविक्रम ! चलो देखें तो आज ग्रीक लोग कितने वीर हैं । शीघ्र प्रस्तुत हो। [सैनिक और चंडविक्रम जाते हैं] आवें लड़ें ग्रीक, हम वीर निर्भीक, प्रण में रहें ठीक, सब वीर मेरे । देखे सबल हाथ, रण बीच कर साथ, अर्पण करें माथ, पहुँचे न डेरे। आवें... कल्याणी परिणय : ३९