पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५५१

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है, उसे कोई बन्दी नहीं बना सकता है। यह क्या राजकुमार ! खड्ग को कोष में स्थान नहीं है क्या ! सिंहरण-(व्यंग से) वह तो स्वर्ण से भर गया है । आंभीक-तो तुम सब कुचक्र में लिप्त हो। और इस मालव को तो मेरा अपमान करने का प्रतिफल-मृत्युदण्ड-अवश्य भोगना पड़ेगा। चन्द्रगुप्त-क्यों, क्या यह एक निस्सहाय छात्र तुम्हारे राज्य में शिक्षा पाता है और तुम एक राजकुमार हो- -बस इसीलिए? [आंभीक तलवार चलाता है | चन्द्रगुप्त अपनी तलवार पर उसे रोकता है | आंभीक की तलवार छूट जाती है । यह निस्सहाय होकर चन्द्रगुप्त के आक्रमण की प्रतीक्षा करता है / बीच में अलका आ जाती है] सिहरण-धीर चन्द्रगुप्त, बस ! जाओ राजकुमार, यहां कोई कुचक्र नहीं। अपने कुचक्रों से अपनी रक्षा स्वयं करो। चाणक्य-राजकुमारी, मैं गुरुकुल का अधिकारी हूं। मैं आज्ञा देता हूं कि तुम क्रोधाभिभूत कुमार को लिवा जाओ। गुरुकुल मे शस्त्रों का प्रयोग शिक्षा के लिये होता है, ४६ युद्ध के लिये नही। विश्वाम रखना इस दुर्व्यवहार का समाचार महाराज के कानों तक न पहुंचेगा। अलका-ऐसा ही हो। चलो भाई ! (क्षुब्ध आंभीक उसके साथ जाता है) चाणक्य-(चन्द्रगुप्त से) तुम्हारा पाठ गमाप्त हो चुका है और आज का यह काण्ड-असाधारण है। मेरी सम्मति है कि तुम शीघ्र तक्षशिला का परित्याग कर दो। और सिंहरण, तुम भी। चन्द्रगुप्त-आर्य, हम मगध हैं और यह मालव ! अच्छा होता कि यहीं गुरुकुल में हम लोग शस्त्र की परीक्षा भी देते । चाणक्य -क्या यही मेरी शिक्षा है ? बालकों की-सी उपलता दिखलाने का यह स्थल नही। तुम लोगों को समय पर शस्त्र का प्रयोग करना पड़ेगा। परन्तु अकारण रक्तपात नीति-विरुद्ध है। चन्द्रगुप्त-आर्य ! संसार-भर की नीति और शिक्षा का अर्थ मैंने यही समझा है कि आत्म-सम्मान के लिए मर मिटना ही दिव्य जीवन है। सिंहरण मेरा आत्मीय है, मित्र है, उसका मान मेरा ही मान है । चाणक्य-देलूंगा कि इस आत्म-सम्मान की भविष्य-परीक्षा में तुम कहाँ नक उत्तीर्ण होते हो! सिंहरण-आपके आशीर्वाद से हम लोग अवश्य सफल होंगे। चाणक्य-तुम मालव हो और यह मगध, यहीं तुम्हारे मान का अवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतने से ही सन्तुष्ट नहीं होगा। मालव और मगध को 1 चन्द्रगुप्त : ५३१