पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६८

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राक्षस-राजकुमारी, राजनीति महलों में नहीं रहती, इसे हम लोगों के लिये छोड़ देना चाहिये । उक्त पर्वतेश्वर अपने गर्व का फल भोगे और ब्राह्मण चाणक्य ! परीक्षा देकर ही कोई साम्राज्य-नीति समझ लेने का अधिकारी नहीं हो जाता। चाणक्य-सच है बौद्ध अमात्य, परन्तु यवन आक्रमणकारी बौद्ध और ब्राह्मण का भेद न रखेंगे। नन्द-वाचाल ब्राह्मण ! तुम अभी चले जाओ, नही तो प्रतिहारी तुम्हें धक्के देकर निकाल देंगे। चाणक्य-राजाधिराज मैं जानता हूँ कि प्रमाद में मनुष्य कठोर सत्य का भी अनुभव नहीं करता, इसीलिए मैंने प्रार्थना नही की-अपने अपहृत ब्रह्मस्व के लिए मैंने भिक्षा नहीं मांगी। क्यों? जानता था कि वह मुझे ब्राह्मण होने के कारण न मिलेगी, परन्तु जब राष्ट्र के लिए- राक्षस-चुप रहो । चणक के पुत्र हो न, तुम्हारे पिता भी ऐसे ही हठी थे। नन्द-क्या ! उसी विद्रोही ब्राह्मण की सन्तान ? निकालो इसे अभी यहां से । [प्रतिहारी आगे बढ़ता है | चन्द्रगुप्त सामने आकर रोकता है] चन्द्रगुप्त-सम्राट् मै प्रार्थना करता हूँ कि गुरुदेव का अपमान न किया जाय । मैं भी उत्तरापथ से आ रहा हूँ। आर्य चाणक्य ने जो कुछ कहा है, वह साम्राज्य के हित की बात है। उस पर विचार किया जाय । नन्द-कौन ? सेनापति मौर्य का कुमार चन्द्रगुप्त ! चन्द्रगुप्त-हां देव, में युद्ध-नीति सीखने के लिए ही तक्षशिला भेजा गया था। मैंने अपनी आँखों गान्धार का उपप्लव देखा है, मुझे गुरुदेव के मत में पूर्ण विश्वास है। यह आगन्तुक आपत्ति पञ्चनद-प्रदेश तक ही न रह जायगी। नन्द--अबोध युवक, तो क्या इसीलिए अपमानित होने पर भी मैं पर्वतेश्वर की सहायता करूं ? असम्भव है। तुम राजाज्ञा में बाधा न देकर शिष्टता सीखो। प्रतिहारी, निकालो इस ब्राह्मण को यह बड़ा ही कुचक्री मालम पडता है । चन्द्रगुप्त - राजाधिराज, ऐसा करके आप एक भारी अन्याय करेगे और मगध के शुभचिन्तकों को शत्रु बनायेगे। कल्याणी -पिताजी, चन्द्रगुप्त पर ही दया कीजिये। एक बात उसकी भी मान लीजिये। नन्द-चुप रहो, ऐसे उद्दण्ड को मैं कभी नही क्षमा करता, और सुनो चन्द्रगुप्त, तुम भी यदि इच्छा हो तो इसी ब्राह्मण के साथ जा सकते हो, अब कभी मगध में मुंह न दिखाना। [प्रतिहारी दोनों को निकालना चाहता है | चाणक्य रुककर कहता है] चाणक्य-सावधान नन्द ! तुम्हारी धर्मान्धता से प्रेरित राजनीति आँधी की ५४८: प्रसाद वाङ्मय