पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५८२

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अलका-देव ! मैं गान्धार छोड़कर जाती हूँ। दाण्डयायन-क्यों अलके, तुम गान्धार की लक्ष्मी हो, ऐसा क्यों ? अलका-ऋषे! यवनों के हाथ स्वाधीनता बेच कर उनके दान से जीने की शक्ति-मुझ में नहीं। दाण्डयायन-तुम उत्तरापथ की लक्ष्मी हो तुम अपना प्राण बचाकर कहाँ जाओगी?-(कुछ विचार कर) -अच्छा जाओ देवि ! तुम्हारी आवश्यकता है। मंगलमय विभु अनेक अमंगलों में कौन-कौन कल्याण छिपाये रहता है, हम सब उसे नहीं समझ सकते । परन्तु जब तुम्हारी इच्छा हो, निस्संकोच चली आना। अलका-देव हृदय में सन्देह है । दाण्डयायन-क्या अलका? अलका-ये दोनों महाशय, जो आपके सम्मुख बैठे है-जिनपर पहले मेरा पूर्ण विश्वास था, ये ही अव यवनों के अनुगत क्यों होना चाहते है ? [वाण्डघायन चाणक्य की ओर देखता है और चाणक्य कुछ विचारने लगता है] चन्द्रगुप्त-देवि ! कृतज्ञता का बन्धन अमोघ है। चाणक्य-राजकुमारी ! उस परिस्थिति पर आपने विचार नही किया है, आपकी शंका निर्मूल है। दाण्डयायन-सन्देह न करो अलका। कल्याणकृत् को पूर्ण विश्वासी होना पड़ेगा। विश्वास सुफल देगा दुर्गति नही । [यवन सैनिक का प्रवेश] यवन-देवपुत्र आपकी सेवा में आना चाहते है; क्या आज्ञा है ? दाण्ड्यायन-मैं क्या आज्ञा दूं सैनिक । मेरा कोई रहस्य नहीं, निभृत-मन्दिर नही, यहां पर सबका प्रत्येक क्षण स्वागत है । (सैनिक जाता है) अलका-तो मैं जाती हूँ, आज्ञा हो। दाण्डयायन-कोई आतंक नही है, अलका ठहरो तो। चाणक्य-महात्मन् , हम लोगों को क्या आज्ञा है ? किसी दूसरे समय उपस्थित हों? दाण्ड्यायन-चाणक्य ! तुमको तो कुछ दिनों तक इस स्थान पर रहना होगा, क्योंकि सब विद्याओं के आचार्य होने पर भी तुम्हें उसका फल नहीं मिला-उद्वेग नहीं मिटा। अभी तक तुम्हारे हृदय में हलचल मची है, यह अवस्था सन्तोषजनक नहीं। १. क्षणिक विनाशों में स्थिर मंगल चुपके से हंसता क्या कामायनी, कर्मसर्ग। ५६२: प्रसाद वाङ्मय