पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६००

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. सिंहरण--यह भी कोई हसी है। अलका-बन्दी ! जाओ सो रहो'-मैं आज्ञा देती हूँ। (सिंहरण का प्रस्थान)। सुन्दर निश्छल हृदय तुमसे हंसी करना भी अन्याय है, परन्तु व्यथा को दबाना पड़ेगा। सिंहरण को मालव भेजने के लिए प्रणय के साप अत्याचार करना होगा। [गाती है] प्रथम यौवन-मदिरा से मत्त, प्रेम करने की थी परवाह, और किसको देना है हृदय, चीन्हने की न तनिक थी चाह । बेंच डाला था हृदय अमोल, आज वह मांग रहा था बाम, वेदना मिली तुला पर तोल, उसे लोभी ने ली बेकाम । उड़ रही है हृत्पथ में धूल, आ रहे हो तुम बे-परवाह, करूं क्या दृग-जल से छिड़काव, बनाऊं मैं बिलछन की राह ! संभलते धीरे-धीरे चलो, इसी मिस तुमको लगे बिलम्ब, सफल हो जीवन की सब साध, मिले आशा को कुछ अवलम्ब । विश्व की सुषमाओं का स्रोत, बह चलेगा आँखों की राह, और दुर्लभ होगी पहचान, रूप-रत्नाकर भरा अथाह । [पर्वतेश्वर का प्रवेश] पर्वतेश्वर-सुन्दरी अलका-तुम कब तक यहाँ रहोगी? अलका--यह तो बन्दी बनानेवाले की इच्छा पर निर्भर है। पर्वतेश्वर-कौन तुम्हें बन्दी कहता है ? यह तुम्हारा अन्याय है, अलका ! चलो, सुसज्जित राजभवन तुम्हारी प्रत्याशा मे है । अलका--नहीं पौरव, मैं राजभवनों से डरती हूँ क्योंकि उसके लोभ से मनुष्य आजीवन मानसिक कारावास भोगता है । पर्वतेश्वर--इसका तात्पर्य ? अलका -कोमल शय्या पर लेटे रहने की प्रत्याशा में स्वतन्त्रता का भी विसर्जन करना पड़ता है--यही उन विलासपूर्ण राजभवनों का प्रलोभन है। पर्वतेश्वर--व्यंग न करो अलका । पर्वतेश्वर ने जो कुछ किया है, वह भारत का एक-एक बच्चा जानता है । परन्तु देव प्रतिकूल हो -तब क्या किया जाय? अलका--मैं मानती हूँ, परन्तु आपकी आत्मा इसे मानने के लिए प्रस्तुत न होगी। हम लोग-जो आपके लिए, देश के लिए, प्राण देने को प्रस्तुत थे, केवल यवनों को प्रसन्न करने के लिए-बन्दी किये गये । १ तुलनीय आकाशदीप कहानी। ५८०: प्रसाद वाङ्मय