पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चाहिये । नहीं तो पानी गर्म करके पीना, बालों को नुचवाना, सिर मुड़वाना, कांटों पर सोना, पंचाग्नि तापना, लम्बी-लम्बी जटा बढ़ाकर सचल वटवृक्ष का अभिनय करना, सड़क पर झाड़ देते चलना, मुख को कपड़े से ढंके रखना जिससे कोई प्राणी बिल समझ कर न घुस जाय। या, एकबार ही माता के गर्भ से निकल कर आनेवाली दिगम्बर अवस्था में रहना यह सब कैसे होगा। धनदत्त-देखो चन्दन ! मुझे धीरे-धीरे ज्ञान होने लगा है । अहा ! कैसी उत्तम वस्तु मिल रही है उसमें तुम बाधा न डालो। (आंखें मूंदकर विचार करने लगता है) चन्दन-कुछ दिन तुम यही पड़े रहो कि पूर्ण ज्ञान होने के लिए दिवाला पिट जायगा। वाणिज्य संघ के यात्री तो चले गये वे सब तुम्हारी इस ज्ञान पिपासा का लाभ उठायेंगे और तुम यहाँ आजीवकजी की बकवाद सुनो। धनदत्त-क्या वे सब चले गये। चन्दन-नहीं तो क्या तुम्हारी तरह""नेपथ्य को ओर देखकर अरे--रे !! रे !!! अब तो मैं जाता हूँ। (उठकर इधर-उधर दौड़ने लगता है) आजीवक-धनदत्त ! नियति यदि उन सबों को दौड़ा रही है तो इसमें दूसरा क्या कर सकता है-(नेपथ्य की ओर देख) अंय ! [चन्दन की स्त्री माधवी का प्रवेश] चन्दन-(घबराकर) हय ! हय ! ! तुमको लज्जा नहीं यहां इस तरह चली आ रही हो जैसे पगली भैस ! माधवी --आप यही हैं अभी ! कितने महीने हो गए। घर में बैठी-बैठी लाज को घोलकर पीऊँ या संकोच को चबाऊँ ? वहां क्या रख आये ! चन्दन-अभी और आगे बढ़ने का मुहूर्त नही मिल रहा है। शकुन का धूमकेतु, सारे शुभ ग्रहों के पथ में अपनी पूंछ से झाड़ लगा रहा है। इसीलिए अभी हमलोग पंचनद के पथ में ही ठहरे हैं । माधवी-आग लगे धूमकेतु की पूंछ में मैं पूछ रही हूँ कि." धनदत्त-चुप रहो-तुम भद्र-महिला होकर ऐसी बातें करती हो। चन्दन-अरे ! कहां गया वह सत्ययुग का स्मरणीय समय जब स्त्रियां पति के लिए चिता पर जला करती थीं। उनके पीछे-पीछे यम से लड़ाई करती थीं। चरणोदक लेकर रह जाती थीं कभी प्रतिवाद भी नहीं करती थीं। घोर कलयुग-- आजीवकजी ! यह संमार की दुर्दशा देखते नहीं बनती। माधवी-ऐसे निठल्ले पतियों के लिए स्त्रियां जल मरती होंगी? गृहस्थी की कठिनाइयों से दुम दबाकर भागनेवाले पतिदेव ! तुम अपनी स्त्री से जल मरने की चन्द्रगुप्त : ५८९