पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६३८

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राक्षस-मैं कहूं भी, तो आप मानने ही क्यों लगे ! नन्द-तो आज तुम लोगों को भी उसी अन्धकूप में जाना होगा-प्रतिहारी ! [नागरिकों का प्रवेश/राक्षस को शृंखला में जकड़ा हुआ देखकर उनमें उत्तेजना]] नागरिक-सम्राट् ! आपसे मगध की प्रजा प्रार्थना करती है कि राक्षस और अन्य लोगों पर भी राजदण्ड द्वारा किये गये जो अत्याचार है, उनका फिर से निराकरण होना चाहिये। नन्द-क्या ! तुम लोगों को मेरे न्याय में अविश्वास है ? नागरिक-इसके प्रमाण है-शकटार, वररुचि और मौर्य ! नन्द - (उन लोगों को देखकर) शकटार ! तू अभी जीवित है ? शकटार--जीवित हूँ नन्द | नियति सम्राटों से भी प्रवल है नन्द-यह मै क्या देखता हूँ ! प्रतिहारी ! पहले इन विद्रोहियों को बन्दी करो। क्या तुम लोगो ने इन्हे छुड़ाया है ? नागरिक-इनका न्याय हमलोगों के सामने किया जाय, जिससे हमलोगो को राज-नियमों मे विश्वास हो सम्राट् ! न्याय को गौरव देने के लिए इनके अपराध सुनने की इच्छा आपकी प्रजा रखती है। नन्द-प्रजा की इच्छा से राजा को चलना होगा? नागरिक-हां, महाराज ! नन्द-क्या तुम सब-के-सब विद्रोही हो? नागरिक--यह सम्राट अपने हृदय से पूछ देखे । शकटार-मेरे सात निरपराध पुत्रों का रक्त नागरिक-न्यायाधिकरण की आड़ में इतनी बड़ी नृशंसता ! नन्द-प्रतिहारी ! इन सबको बन्दी बनाओ। [राज-प्रहरियों का सबको बाँधने का उद्योग/दूसरी ओर से सैनिकों के साथ चन्द्रगुप्त का प्रदेश] चन्द्रगुप्त -ठहरो ! (सब स्तब्ध रह जाते हैं) महाराज नन्द ! हम सब आपकी प्रजा है, मनुष्य है, हमें पशु बनने का अवसर न दीजिये ! वररुचि-विचार की तो बात है, यदि सुव्यवस्था से काम चल जाय तो उपद्रव क्यों हो? नन्द-(स्वगत) विभीषिका ! विपत्ति | सब अपराधी और विद्रोही एकत्र हुए हैं। (कुछ सोचकर प्रकट) अच्छा मौर्य ! तुम हमारे सेनापति हो और तुम वररुचि ! हमने तुम लोगों को क्षमा कर दिया। शकटार-और हम लोगों से पूछो! पूछो नन्द-अपनी नृशंसताओं से पूछो ! ६१८:प्रसाद वाङ्मय