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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/८

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की, यहाँ घुलमिल कर वे यहीं के हो गए। किन्तु, जातीय पराभव के इस तीसरे आवर्त्त की बात सर्वथा भिन्न है : तुर्क, मंगोल, तातार जातियों के आक्रामकों में दो प्रकार रहे। एक तो वे जो 'सोने की चिड़िया' के पंख नोच कर ले भागे, उन्होंने साम्पत्तिक क्षतियाँ ही पहुँचाईं : दूसरे वे रहे जिन्होंने यहाँ रहकर शासन करने की बात निश्चित कर ली थी, उनके लिए सम्पदा के आहरण के साथ-साथ अपने जीवन-दर्शन को आरोपित करने के लिए शस्य-श्यामला भारत-भूमि को वैसा मरुकान्तार बनाना आवश्यक हो गया जहाँ उनके जीवन-दर्शन की उत्पत्ति हुई थी। फिर तो सांस्कृतिक प्रदूषण ही नहीं विनाश भी अवश्यंभावी बन गया। 'प्रायश्चित्त' के नायक जयचन्द और अनुनायक मुहम्मदगोरी का द्वन्द्व एक कार्य भी है और कारण भी––वैसा कारण जो निरन्तर कार्यशील बना है।

ज्ञातव्य होगा कि प्रायश्चित्त में उठा प्रश्न अन्य नाटकों में अपना समाधान खोजता-उकेरता चल रहा है। यह खोज ही इस समग्र नाट्य-रचना-समुच्चय को प्रासंगिक बनाए हैं : यही नहीं अपितु वे दो नाटक––'कामना' तथा 'एक घूँट' भी जिन्हें आन्यापदेशिक कहा जाता है, जो इतिहास से सीधा तात्पर्य नहीं रखते वे––आज और भी प्रासंगिक बने है। समाज ने अपनी जो अच्छी-बुरी उपलब्धियाँ अतीत को सौंप दीं––उनसे इतिहास का निर्माण हुआ। किन्तु, वर्तमान की भोग-दशा को उद्भावित करने वाले प्रश्नों पर जो लेखकीय दृष्टि है वह कितनी सार्वायुषी अथवा अधुनापि प्रासंगिक है––यह कामना एवं एक घूँट से भलीभाँति उजागर है। 'कामना' में जो अर्थ प्रमुखता का विकसित होता बिन्दु है वह अपने विकास की उग्रदशा में एक शून्य बन गया किंवा एक सामाजिक खोखलापन प्रस्तुत हो गया उसी खोखलेपन का व्यंग्यात्मक निदर्शन 'एक घूँट' कराता है। अस्तु।

पाँचवें ऐतिहासिक नाटक स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य और कामायनी का लेखन समकालीन है। उभय कृतियों का आरंभ ईसवीय १९२७ में हुआ। स्कन्दगुप्त उसी वर्ष पूरा होकर १९२८ में प्रकाशित हो गया किन्तु कामायनी आठ वर्षों के बाद पूरी हो सकी। इसके दो कारण रहे : प्रथम तो इसी के बीच अवान्तर लेखन, कंकाल समाप्त हो रहा था और तितली का लेखन भी उसी आठ वर्षों के अन्तराल की बात है। आँधी, इन्द्रजाल, आकाशदीप की कहानियाँ 'एक घूँट' और ध्रुवस्वामिनी की रचना लहर के गीत और निबन्ध ये सभी तो उसी अष्ट-वर्षीय अन्तराल की देन हैं : उनके जीवन के उस कालखण्ड को कामायनी युग कहना होगा। जिसमें चेतना के उच्च शिखर से चली काव्य सरस्वती के प्रखर वेग से इन रचनाओं की शाखा-सरिताएँ बन गईं।

अन्य कारण था उनके क्रमशः गिरते स्वास्थ्य का। किन्तु, प्रतीत होता है कि उनके ध्रुव संकल्प में भगीरथ का पुरुषार्थ और दधीचि का अस्थि-बल दोनों ही एकायन

VIII : प्रसाद वाङ्मय