पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७१८

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मृत्युदण्ड के लिए उत्सुक! महादेवी आत्महत्या करने के लिए प्रस्तुत! फिर यह हिचक क्यों? एक बार अन्तिम बल से परीक्षा कर देखो। बचोगे तो राष्ट्र और सम्मान भी बचेगा, नही तो सर्वनाश!

चन्द्रगुप्त––आहा, मन्दा! भला तू कहाँ से यह उत्साहभरी बात कहने के लिए आ गयी? ठीक तो है अमात्य! सुनो, यह स्त्री क्या कह रही है?

रामगुप्त––(अपने हाथों को मसलते हुए) दुरभिसन्धि, छल, मेरे प्राण लेने का कौशल!

चन्द्रगुप्त––तब आओ, हम स्त्री बन जायें और बैठ कर रोएं।

हिजड़ा––(प्रवेश करके) कुमार, स्त्री बनना सहज नही है। कुछ दिनों तक मुझसे सीखना होगा। (सबका मुँह देखता है और शिखरस्वामी के मुँह पर हाथ फेरता है) उहूँ, तुम नही बन सकते। तुम्हारे ऊपर बड़ा कठोर आवरण है। (कुमार के समीप जाकर) कुमार! मैं शपथ खाकर कह सकती हूँ कि यदि मैं अपने हाथों से सजा दूँ तो आपको देख कर महादेवी का भ्रम हो जाय।

[चन्द्रगुप्त उसका कान पकड़ कर बाहर कर देता है]

ध्रुवस्वामिनी––उसे छोड़ दो कुमार। यहाँ पर एक वही नपुंसक तो नहीं है। बहुत-से लोगों में से किसको-किसको निकालोगे?

[चन्द्रगुप्त उसे छोड़ कर चिन्तित-सा टहलने लगता है और शिखरस्वामी रामगुप्त के कानों में कुछ कहता है]

चन्द्रगुप्त––(सहसा खड़े होकर) अमात्य, तो तुम्हारी ही बात रही। हाँ, उसमें तुम्हारे सहयोगी हिजड़े की भी सम्मति मुझे अच्छी लगी। मैं ध्रुवस्वामिनी बन कर अन्य सामन्त कुमारों के साथ शकराज के पास जाऊँगा। यदि मैं सफल हुआ तब तो कोई बात ही नहीं, अन्यथा मेरी मृत्यु के बाद तुम लोग जैसा उचित समझना, वैसा करना।

ध्रुवस्वामिनी––(चन्द्रगुप्त को अपनी भुजाओं मे पकड़ कर) नहीं, मैं तुमको न जाने दूँगी। मेरे क्षुद्र, दुर्बल नारी-जीवन का सम्मान बचाने के लिए इतने बड़े बलिदान की आवश्यकता नहीं।

रामगुप्त––(आश्चर्य और क्रोध से) छोड़ो, छोड़ो, यह कैसा अनर्थ! सब के सामने यह कैसी निर्लज्जता!

ध्रुवस्वामिनी––(चन्द्रगुप्त को छोड़ती हुई जैसे चैतन्य होकर) यह पाप है? जो मेरे लिए अपनी बलि दे सकता हो, जो मेरे स्नेह (ठहर कर) अथवा इससे क्या? शकराज क्या मुझे देवी बना कर भक्ति-भाव से मेरी पूजा करेगा! वाह रे लज्जाशील पुरुष!

६९८ : प्रसाद वाङ्मय