चन्द्रगुप्त––(हँसकर) शकराज को तुम धोखा नहीं दे सकती हो। ध्रुवस्वामिनी कौन है? यह एक अन्धा भी बता सकता है।
ध्रुवस्वामिनी––(आश्चर्य से) चन्द्रे! तुमको क्या हो गया है? यहाँ आने पर तुम्हारी इच्छा रानी बनने की हो गई है? या मुझे शकराज से बचा लेने के लिए यह तुम्हारी स्वामिभक्ति है?
[शकराज चकित होकर दोनों की ओर देखता है]
चन्द्रगुप्त––कौन जाने तुम्हीं ऐसा कर रही हो?
ध्रुवस्वामिनी––चन्द्रे! तुम मुझे दोनों ओर से नष्ट न करो। यहाँ से लौट जाने पर भी क्या मैं गुप्तकुल के अन्तःपुर में रहने पाऊँगी?
चन्द्रगुप्त––चन्द्रे कह कर मुझको पुकारने से तुम्हारा क्या तात्पर्य है? यह अच्छा झगड़ा तुमने फैलाया। इसीलिए मैंने एकान्त में मिलने की प्रार्थना की थी।
ध्रुवस्वामिनी––तो क्या मैं यहाँ भी छली जाऊँगी?
शकराज––ठहरो, (दोनों को ध्यान से देखता हुआ) क्या चिन्ता यदि मैं दोनों को ही रानी समझ लूँ?
ध्रुवस्वामिनी––ऐं...
चन्द्रगुप्त––हें...
शकराज––क्यों? इसमें क्या बुरी बात है?
चन्द्रगुप्त––जी नहीं, यह नहीं हो सकता। ध्रुवस्वामिनी कौन है, पहले इसका निर्णय होना चाहिए।
ध्रुवस्वामिनी––(क्रोध से) चन्द्रे! मेरे भाग्य के आकाश में धूमकेतु-सी अपनी गति बन्द करो।
शकराज––(धूमकेतु की ओर देखकर भयभीत-सा) ओह भयानक!
[व्यग्र भाव से टहलने लगता है]
चन्द्रगुप्त––(शकराज की पीठ पर हाथ रखकर) सुनिए....
ध्रुवस्वामिनी––चन्द्रे!
चन्द्रगुप्त––इस धमकी से तो कोई लाभ नहीं।
ध्रुवस्वामिनी––तो फिर मेरा और तुम्हारा जीवन-मरण साथ ही होगा।
चन्द्रगुप्त––तो डरता कौन है(दोनों ही शीघ्र कटार निकाल लेते हैं)
शकराज––(घबरा कर) हैं, यह क्या? तुम लोग यह क्या कर रही हो? ठहरो! आचार्य ने ठीक कहा है, आज शुभ मुहूर्त नहीं। मैं कल विश्वसनीय व्यक्ति को बुला कर इसका निश्चय कर लूँगा। आज तुम लोग विश्राम करो।
ध्रुवस्वामिनी––नहीं, इमका निश्चय तो आज ही होना चाहिए।
शकराज––(बीच में खड़ा होकर) मैं कहता हूँ न!
७१० : प्रसाद वाङ्मय