पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७४६

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न विचार किया ? इस पवित्र मानव-जीवन की, इस चैतन्य ज्वाला की उपयोगिता क्या निर्वाण में बुझ जाने मे है ? [भिक्षु हताश होकर उसकी ओर देखता चुप रह जाता है | भीतर घंटा की ध्वनि होती है और उसी द्वार से भिक्षुणियों का बल निकलता है। घंटा की ध्वनि बन्द हो जाती है और सजीव शोक-प्रवाह-सी भिक्षुणियों को पात, अभ्यास से विषादपूर्ण पाद विक्षेप करती हुई एक ओर चली जाती है | नेपथ्य में गीत] सुख साधन में भूल न रे मन ! भव तृष्णा मिटेगी तेरी आशा दोला झूल न रे मन ! रूप, वेदना, क्षणिक रंग हैं खिल-खिल कर यों फूल न रे मन ! [भिक्षु और सैनिक जैसे उन्हें न देखते हुए सविनय सिर झुका लेते हैं | सहसा सैनिक एक सुपरिचित मूत्ति देखकर जिधर भिक्षुणियों का दल नेपथ्य में चला जाता है उसी ओर देखने लगता है | आवेश से आगे बढ़ता हुआ]] सैनिक-(ऊंचे स्वर से) इरावती ! इरावती ! सुन लो, चली न जाओ। भिक्षु- फिर वही अभिनय ! सैनिक-चुप रहो भिक्षु ? यह किस क्रूरकर्मा का विधान है ! जिसे ऊषा की उल्लसित लालिमा में विकमित होना चाहिए, उसे तुम-नहीं, तुम्हारे धर्म-दम्भ ने दिनान्त की सन्ध्या के पीलेपन में डूबते हुए-मुरझायी सांस लेने की आज्ञा दी है। इरावती. जिसको वसन्त की कोकिला की तरह मादक तान लेनी चाहिए वह चिर शोक संगीत-सी महाशून्य मे चली जा रही। तुम कहोगे कि इससे धर्म का प्रचार होता है । किन्तु भिक्षु-युवक ! धर्म ही मानव हृदय मे शान्ति और उपशम का साधन है। सैनिक-हृदयहीन धार्मिक ! शान्ति होगी कहाँ ? तुम्हारे क्षणिक विज्ञान के राज्य मे शान्ति ठहरेगी कहाँ ? तुम क्या जानो ? यौवन-काल के सम्पूर्ण समर्पण करने वाले हृदय में घोर दुःख और कष्ट में भी कितना विश्वास और कितनी शान्ति. होती है। वह शान्ति तुम्हारी-जैमी मृतक-शान्ति नही। किन्तु मैं यह क्या कह रहा हूँ ? तुम उगे क्या समझोगे ? (विनम्र होकर) स्थविर ! क्षमा करो ! मैं अतिवादी हूँ। बताओ इरावती को मंघ की मृत्यु-शीतल छाया मे किसने भेज दिया है ? भिक्षु-(हंसकर) सम्राट ने । सैनिक -ओह ! सम्राट् ने ? ७२६ :प्रसाद वाङ्मय