पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हिम के आसन बिछ, पवन परिमल मिला बहता है दिन-रात, वहाँ जाना चहो? सुनो ग्रीष्म के पथिक, न ठहरो फिर यहाँ; चलो, बढ़ो, वह रम्य भवन अति दूर है। रोहित-बड़ी कृपा आकाश-विहारी देव की हुई, दीन करता प्रणाम है भक्ति से । देव ! आप यदि हैं प्रसन्न, तो भाग्य है। प्रभो ! सदा आदेश आपका ध्यान से पालन करता रहे दास, वर दीजिये, "हके कर्म-पथ मे न कभी यह भीत हो" (नेपथ्य से) हम प्रसन्न हैं, वत्म ! करो निज कार्य को। (रोहित जाता है) तीन पुत्र; , तृतीय दृश्य स्थान-अजीगत का कुटीर (अजीगर्त और तारिणी) अजीगर्त-प्रिये ! एक भी पशु न रहे अब पास में, भोजन का क्या निर्वाह है ? यह अरण्य भी फल से खाली हो गया, केवल सूखी डाल, पात फैले, अहो नव वसन्त में जब वह कुसुमित हो रहा- था तव तो अलि, शुक और सारिका निवास में कोमल कलरव सदा किया करत । अहो जहाँ फैल लता चरण कोमल किसलय अधर मधुर से प्रेम से, अब सूखे कांटे गड़ते हैं, हा ! वही ! कानन की हरियाली ही सब भूख को तुरत मिटाती थी देकर फल-फूल को वहाँ न छाया भी मिलती है धूप में। कहो प्रिये, अव फिर क्या करना चाहिए ? कर को चूमती करुणालय:६१