पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७८

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गया। बात तारिणी- क्या कहें प्राणनाथ इस भूमि में, अब तो रहना दुष्कर-सा है हो (नेपथ्य से) "घबड़ाओ मत अजीगर्त । मैं आ गया।" (प्रवेश करके) रोहित-कहिये क्या है दु ख आपको जो अभी इतने व्याकुल होकर यो किस बात को सोच रहे थे। क्या पशुओं का दुःख है ? अजीगत-हाँ । हाँ ! तुम तो जैसे सत्य बात हो जानते और दिखाई पडते राजकुमार-से, तब क्या तुम कुछ दोगे मुझे सहायता ? रोहित-हाँ ! यदि तुम भी बात हमारी मान लो। अजीगर्त-मानूंगा कैसी कैसी ही निष्ठुर हो। रोहित-सौ दंगा मे गाय तुम्हे, जो दो मुझे एक पुत्र अपना, उस पर सब सत्त्व हो मेरा, उसको चाहे जो कुछ हम करे । तारिणी-दूंगी नही कनिष्ठ-पुत्र को मैं कभी। अजीगत-और ज्येष्ठ को मैं भी दे सकता नही । रोहित-तो मध्यम सुत दे देना स्वीकार है- वलि देने के लिए एक नरमेध मे? (ऋषि-पत्नी मुंह ढांप कर भीतर चली जाती है और अजीगर्त कुछ सोचने लगता है) अजीगर्त-हाँ जी । मुझको सब बाते स्वीकार हैं। चलो मुझे पहले गाये दे दो अभी। रोहित-अच्छा, उसको यहां बुलाओ देख ले हम भी; मध्यम पुत्र तुम्हारा है कहीं ? (नेपथ्य की ओर मुख करके-) अजीगर्त-शुन शेफ ! ओ शुनःशेफ ! ! आ जा यहाँ । (मार खाने के भय से, खेल छोडकर शुन शेफ भागता हुआ आता है) शुनःशेफ-क्या है बाबा, क्यो हो मुझे बुला रहे ? मैंने कोई भी न किया है दोष, जो आप बुलाते मुझे मारने के लिए। ६२. प्रसाद वाङ्मय