पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१०५

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संकल्पवाद का। अस्तु, भयी धारा की अस्मिता पर लगे प्रश्न-चिह्न का संक्षिप्त-सो उत्तर इस 'अभिमत' का एक आशय-अवश्य रहा। समकालीन समीक्षा के प्रतिमान १९२९ से हिन्दी-साहित्य मे बदलते चले गए क्योकि उसका सैद्धान्तिक पक्ष आयातित अथच दुर्बल रहा । 'अभिमत' का यह अश कि-'आलम्बन के प्रतीक उन्ही के लिए अस्पष्ट होगे जिन्होने यह नही समझा है कि रहस्यमयी अनुभूति युग के अनुसार अपने लिए विभिन्न आधार चूना करती है। (और) केवल कोमलता ही कवित्व का मापदण्ड नही है। निरालाजी ने नम्ण और ओज, सौन्दर्य-भावना और कोमल-कल्पना का जो माधुर्यमय सकलन क्यिा है वह उनकी कविता मे शक्तिसाधना का उज्वल परिचायक है।' किन्तु, हिन्दी समीक्षा ने समीक्षा के प्राचीन और भारतीय-सिद्धान्त को देखने ममझने के स्थान पर पश्चिमीय समीक्षा-सिद्धान्त को अधिक उपयोगी माना । जिससे जीवन-दर्शनो के वैलक्षण्य और परम्पराओ के भिन्नत्व की पेक्षा स्वाभाविक थी- जो हुई। फिर, यह भी स्वाभाविक रहा कि समानत आयातित विचार पद्धति के काव्य उसकी दृष्टि मे वरेण्य होते । इस प्रसग मे हिन्दी शब्द सागर की प्रस्तावना १९२९ तथा परवर्ती "हिन्दी साहित्य का इतिहाम' और निरालाजी का निबन्ध 'पन्तजी और पल्लव'-अवलोक्य होगा। हाँ, जब शुक्लजी की पुस्तक कात्य मे रहस्यावाद' आई तब पूज्य पिताश्री पर जोर दिया जाने लगा कि वे नथी व विना पर कोई शास्त्रीय प्रकरण दे ही दे अन्यथा ऐसे 'अनर्गल प्रलाप' भविष्य मे घातक हो जायगे। सुतग, काव्य और कला तथा अन्य छ निबन्ध लिखे गए-उनका उपोद्घात भी यह अभिमत' है। युगानुमार परिवर्तन में उनकी पूरी आस्था रही। नटराज के महानृत्य मे जहा 'बिखरे असख्य ब्रह्माण्ड गोल' वही जब 'परिवर्तन के पट रहा खोल' तब परिवर्तन को-जिसके चलते सृष्टि का विकास और उसम अनवरत सशोधन हुआ करता है- -अस्वीकार करना बुद्धिवादिनी जाड्यता ही तो है | साहित्य ही नही समाज की अन्यान्य प्रवृत्तियो मे भी इस तथ्य को उन्होने देखा है। ध्रुवस्वामिनी की 'सूचना' मे वे कहते है-"आज जितने सुधार या समाजशास्त्र के प्रयोग देखे या सुने जाते हैं उन्हें आयातित या नवीन समझ कर हम बहुत शीघ्र अभारतीय कह देते है। किन्तु मेरा ऐसा विश्वास है कि प्राचीन आर्यावर्त मे समाज की दीर्घकाल व्यापिनी परम्परा मे प्राय प्रत्येक विधानो का परीक्षात्मक प्रयोग किया गया है । तात्कालिक कल्याणकारी परिवर्तन भी हुए हैं।" सुतरा विभिन्न स्तर और प्रकार के परिवर्तनो के अनुशीलन उनके विश्लेषणात्मक चिन्तन के महज अनषग रहे, जिसके बिना व किसी को स्वीकार या अस्वीकार नही करते थे। यही कारण है कि उन्होने 'यशोधर्म' नाटक लिखकर स्वत नष्ट कर दिया क्योकि उनके विश्लेषणात्मक चिन्तन मे यशोधर्म कल्कि नही ठहरा। (अवलोक्य-प्रथम अनुवर्त, पृष्ठ ३४-३५) । स्व० काशीप्रसाद अनुवृत्ति ·५