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जायसवाल की स्थापना के आधार पर उसकी रचना हुई थी। बाद में उस स्थापना से वैमत्य होने पर नाटक को प्रेस में नहीं जाने दिया और नष्ट कर दिया। (जिसका स्व० रायकृष्णदासजी को बड़ा दुःख हुआ)। अपनी रचना के सुवर्ण को अपने निकष पर परख लने के बाद ही उसे प्रकाश में आने देने का उनका अभ्यास रहा। तब, इस 'अभिमत' के कथ्य और उसकी अर्थवत्ता पर विचार के क्रम में नयी काव्यधारा को, जिसे कुछ रहस्यवाद तो कुछ छायावाद कहते रहे-शास्त्रीय आधार देना आवश्यक दीखने पर उन्होंने काव्य और कला प्रभृति सात निबन्ध लिखे। मुझे उन निबन्धों के मीमांसन से इस अनुवृत्ति के कलेवर को बढ़ाने की आवश्यकता नही . वह सुधीजनों का कार्यभाग है। किन्तु, प्रसाद-वाङ्मय के निबन्धों में मीमांसन के जो विशद आयाम है उन्हे स्पर्श करने की समुचित चेष्टा का अभाव-सा है : शोध कर्ताओं को इसमे लगने की सुविधा देना विश्वविद्यालयीय कर्तव्य है । परन्तु, अभी नही हो रहा है इससे निराश भी नही होनी चाहिए--'कालोह्ययं निरवधिः विपुला च पृथिवी'। बिना इन निबन्धों से योगक्षेम का पाथेय लिए प्रसाद-वाङ्मय के महापथ की यात्रा सफल और सुकर नही-यह तो निर्विवाद है । बीसवां निबन्ध 'प्राचीन आर्यावर्त्त-प्रथम सम्राट् इन्द्र और दाशराज्ञ युद्ध' है जो प्रस्तावित इन्द्र महा-नाटक पर एक मामग्री-संचयन है : और, कदाचित उसका भूमिका-भाग भी। इनका प्रकाशन 'कोशोत्सव स्मारक संग्रह' और 'गंगा' के वेदाक मे पृथकशः हो चुका है। किन्तु, एक धारा की परस्पर पूरक वस्तु होने से इन्हे एकीकृत करने में मुझे सुविधा हुई। 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' के प्रसाद-मंदिर संस्करण १९८३ के उपोद्घात मे इमकी चर्चा कर चुका हूं। अन्त में है-'आदि पुरुष' किंवा कामायनी का आमुख-जिसे प्रसाद-वाङ्मय की सूत्रात्मिका फलश्रुति कहना उचित है। अन्त में परिशिष्टतः अपने वंश की तालिका--संक्षिप्त परिचय और पूज्य पिताश्री के व्यक्तित्त्व एवं कृतित्त्व के पक्षो की सारिणी दे रहा हूँ। -रत्नशंकर प्रसाद ६: प्रसाद वाङ्मय