पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१०८

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इन्दु-प्रस्तावना (श्रावण १९६६) यह सर्व सम्मति है कि जातीय उन्नति के लिये साहित्य के उन्नति की आवश्यकता होती है। और साहित्य के ही देखने से जातीय उन्नति की सीमा परिलक्षित या प्रमाणित की जा सकती है। जिस जाति ने जितना उन्नति किया है उसका उतना ऊँचा साहित्य देखने में आता है। जिस जाति का माहित्य नही है, उसका मानवजाति से बहुत थोडा सम्बन्ध होता है। साहित्य माधारण 'मानव-समूह' की एक साधारण सम्मत्ति है, परन्तु साहित्य साधारण को महज ही मे प्राप्त होनेवाली सम्पदा नही है। पुण्य द्वारा प्राप्त प्रतिभा में माहित्य की उत्पत्ति है, और उमी प्रतिभा के अनुशीलन करने से साहित्य की श्रीवृद्धि होती है, और उमी प्रतिभा के अम-विकास से साहित्य का क्रमश. परिपाक होता है। जब प्रतिभा का पूर्ण विकास होगा, तब मानव साहित्य भी अपने चरम उन्नति के उच्चतम पवित्र सोपान पर पदार्पण करेगा। उदार तथा पवित्र माहित्य महान होता है, वह मानव को विस्तृत तथा अनन्त उन्नति के पथ पर ले जाता है । साहित्य अनन्त उन्नति का सहाय होता है, महत्व ही उसका उपकरण-क्षेत्र तथा आदर्श-स्वरूप होता है। माहित्य मे जहां क्षुद्रता देखी जाती है वह क्षुद्रता व संकीर्णता नही है, वहाँ पर साहित्य क्षुद्रता की तुलना करके महत्व की महिमा को परिस्फुट करता है। और इसी के द्वारा साहित्य महत्व का प्रवर्तक तथा क्षुद्रता का निवर्तक बनकर, अपना महत्व और मनुष्य के अनन्त उन्नति का पथ, मरल उपाय से दिखा देता है। ___ इसी उन्नत साहित्य की विमल कान्ति से मानव हृदय प्रकाशित होता है, और इसी प्रकाश से मनुष्य की प्रतिभा धीरे-धीरे विकसित होती जाती है, इसी प्रकाश मे साहित्य के प्रभाव मे मनुष्य क्रमशः पूर्ण उन्नति को पाता है। ___अतएव जो कुछ मनुष्य को प्रार्थनीय, उन्नति का सहाय, धर्म साधक तथा उपकारी है, सो केवल साहित्य है। साहित्य का कोई लक्ष्य-विशेष नही होता है और उमके लिए कोई विधि का निवन्धन नही है, क्योंकि साहित्य स्वतन्त्र प्रकृति सर्वतोगामिनी प्रतिभा के प्रकाश का ८: प्रसाद वाङ्मय