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उर्वशी चम्पू की भूमिका यह उर्वशी नामक चम्पू तथा हमारा प्रथम परिश्रम साहित्य-सरोज-मकरन्दोन्मत्त मधुकरगण के समक्ष प्रथमोपहार-स्वरूप उपस्थित है जो कि, वि० सं० १९६३ मे लिखा जा चुका था, किन्तु श्री परमेश्वर की कृपा से उसे प्रकाशित होने का अब अवसर मिला, हमने भी काव्य बनाया है, यह ठीक उसी के समान है जैसे एक सीपी पारावार पार करने का गर्व कर, अस्तु जो कुछ हो बाल्यकाल का बाल्यसुलभ-अशुद्धवाक्यविन्यास भी प्रिय तथा मधुर ही लगना चाहिए। "चम्पू" यह शब्द आप लोगो से अपरिचित नहीं है, क्योकि "नरहरि चम्पू कार" ने अपने ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है कि "काव्य जो दृश्य तथा श्रव्य इन दो भागो मे विभक्त है, उन दोनो भागो मे प्रत्येक भेद के तीन २ भेद है प्रथम पद्य, द्वितीय गद्य, तृतीय गद्यपद्य-चम्पू अतः काव्य के छ भेद हुए अब यह कवि की इच्छा पर निर्भर है कि चम्पू दृश्य बनावं वा श्रव्य । किन्तु हमारा कथन है कि चम्पू केवल अव्य ही होता है। ____ साहित्यदर्पण के षष्ठ परिच्छेद की पहिली कारिका-"दृश्यथव्यत्व भेदेन पुन काव्यं द्विधामतम्-" काव्य का दो भाग करती है-दृश्य तथा • श्रव्य; अचरञ्च साहित्याचार्य अम्बिकादत्तजी गद्यकाव्य मीमासा मे अपनी कारिका दृश्यं श्रव्यमिति द्वेधा तत्काव्यं परिकीर्तितम् ।" से उसी का समर्थन करते है। अपच दृश्य काव्य का, साहित्यदर्पणकार षष्ठ परिच्छेद के तृतीय श्लोक "नाटकमथप्रकरणं भाण व्यायोगसमवकारडिमाः" इत्यादि से अट्ठाइस भेद मानते है तथा अग्निपुराण के ३३८ वे अध्याप के प्रथम श्लोक ___"नाटकं सप्रकरणं डिम ईहामृगोपि वा।" इत्यादि से भी वे ही अट्ठाइस भेद सिद्ध है तथा श्री भारतेन्दुजी ने भी इन्ही भेदों को अपने 'नाटक' नामक प्रबन्ध मे स्थान दिया है। इन दृश्य काव्यों की गद्य-पद्यमय प्रणाली ही है तथा अग्निपुराण मे तो दृश्यकाव्य को मिश्र के ही भेद मे माना है क्योंकि ३३७ वे अध्याय के ८ वे श्लोक "गद्यं पद्यं च मित्रं च काव्यानि त्रिविधं स्मृतम्-" १०:प्रसाद वाङ्मय