पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१११

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आदि से काव्य को गद्य, पर्य', तथा मिश्र इन तीन भागों में विभाजित किया है तथा ३३७.वें अध्याय के ३८ वें श्लोक "भित्रं वपुरितिख्यातं प्रकीर्णमिति च द्विधा। श्रव्यं चैवाभिनेयं च प्रकीर्ण सलोकोक्तिभिः ॥ से दृश्य (अभिनेय) को तो केवल मिश्र के ही भेद मे माना है, तथा भारतेन्दुजी के 'नाटक' के मत से नाटक के एक २ अंक की समाप्ति होने पर पद्यगानमय चर्चरी की आवश्यकता होती है, अतः केवल गद्यमय नाटक दूषित होगा तथा केवल पद्यमय होने से भी दृश्य काव्य दूषित होगा। क्योंकि साहित्यदर्पण के षष्ठ परिच्छेद के भवेदगूढ़ शब्दार्थः क्षुद्रचूर्णकसंयुतः नाना विधान संयुक्तो नातिप्रचुर पद्यवान् इत्यादि से प्रमाणित होता है कि नाटक में क्षुद्रचूर्णक (गद्यभेद) होना चाहिये तथा बहुत से .पद्य न होने चाहिये अत: अग्निपुराण-मत-सिद्ध दृश्य काव्य मिश्र ही होता है। ___ अव श्रव्य काव्य को साहित्याचार्य की कारिका तीन भागों में विभाजित करती है जिसके अर्थ पर न्यान न देने से ही 'नरहरिचम्प-कर्ता चम्पू को दृश्य भी मानते हैं वह यह है गद्यं पद्यं तथा गद्यपद्यं श्रव्यमितिबिधा गद्य, पद्य, तथा गद्यपद्य, जिस गद्यपद्य को साहित्यदर्पणकार श्रव्य में लिखते है(अथ गद्यपद्यमयानि) "गद्य पद्य मयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते" टीकाकार तर्कवागीश महाशय ने भी लिखा है "गद्यपद्यमयानि श्रव्यकाव्यानि इत्यर्थः भेदाः श्रव्यकाव्य विशेषाः" इनसे यह सिद्ध हुआ कि चम्प दृश्य नहीं किन्तु श्रव्य ही होता है, मिश्र होने से ही दृश्यकाव्य चम्प नहीं होता है। संस्कृत में अद्यावधि चम्पू नामांकित जितने ग्रन्थ देखने में आते हैं वे सब श्रव्य हैं तथा गद्यपद्यमय नाटक शाकुन्तलादि चम्पू नहीं कहे जाते हैं, यह भी एक समुज्ज्वल दृष्टान्त है कि संस्कृत में अद्यावधि किसी नाटक को जो कि प्रायः गद्यपद्यमय होते ही हैं चम्प नहीं कहते अत: अग्निपुराण के "मिश्रं वपुरिति ख्यातं" इत्यादि में जो मिश्र श्रव्य हैं अथवा जिसको साहित्याचार्य ने अपनी कारिका - "गद्यं पद्यं तथा गद्यपद्यं श्रव्यमिति विधा" में श्रव्य गद्यपद्यमय माना है उसी को साहित्यदर्पणकार ने लिखा है कि - "गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते" उर्वशी चम्पू की भूमिका : ११