पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/११३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

चम्पू चम्पू यह शब्द आप लोगों से अपरिचित नहीं है, क्योंकि नरहरि चम्पूकार ने अपने ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है कि काव्य जो दृश्य तथा श्रव्य इन दो भागों में विभक्त हैं उन दोनों भागों में प्रत्येक भेद के तीन-तीन भेद हैं, प्रथम पद्य, द्वितीय गद्य, तृतीय गद्यपद्य चम्पू, अतः काव्य के छ: भेद हुए, अव यह कवि की इच्छा पर निर्भर है कि चम्पू दृश्य बनावे वा श्रव्य । किन्तु हमारा कथन है कि चम्पू केवल श्रव्य ही होता है। ___ साहित्यदर्पण के षष्ठ परिच्छेद की पहिली कारिका 'दृश्य श्रव्यत्व भेदेन पुनः काव्यं द्विधा मतम् ।' काव्य का दो भाग करती है, दृश्य तथा श्रव्य । इसके अतिरिक्त साहित्याचार्य गम्बिकादत्तजी भी गद्यकाव्य की मीमांसा में अपनी कारिका 'दृश्य श्रव्यमिति द्वेधा तत्काव्यं परिकीर्तितम् ।' मे उसी का समर्थन करते हैं । अथच, दृश्य काव्य का साहित्यदर्पणकार षष्ठ परिच्छेद के तृतीय श्लोक - ___ 'नाटकमथ प्रकरणं भाण व्यायोगसमवकारडिमाः' इत्यादि से अट्ठाइस भेद मानते हैं और अग्निपुराण ३३८ वें अध्याय के श्लोक - ___ 'नाटकसप्रकरणं डिम ईहामृगोपि वा'-इत्यादि से भी वही अट्ठाइम भेद सिद्ध हैं। श्री भारतेन्दुजी ने भी इन्ही भेदों को अपने 'नाटक' नामक प्रबन्ध में स्थान दिया है, इन दृश्य काव्यों की गद्यपद्यमय प्रणाली ही है और अग्निपुराण में तो दृश्यकाव्य को मिश्र के ही भेद में माना है क्योंकि ३३० वें अध्याय के ८ श्लोक 'गद्यं पद्यं च मिश्रं च काव्यानि त्रिविधं स्मृतम्' आदि से काव्य को गद्य, पद्य तथा मिश्र इन तीन भागों में विभाजित किया है, और ३३० अध्याय के ३८ वें श्लोक-"मिश्रं वपुरिति ग्यानं प्रकीर्णमिति च द्विधा श्रव्यं चैवामिनेयं च प्रकीर्ण मलोकोक्तिभिः।' से दृश्य (अभिनय) को तो केवल मिश्र के ही भेद में माना है, और भारतेन्दुजी के 'नाटक' के मत से नाटक के एक-एक अंक के समाप्त होने पर पद्यगानमय चर्चरी की आवायकता होती है, अतः केवल गद्यमय नाटक दूषित होगा, और केवल पद्यमय होने मे भी दृश्यकाव्य दुषित होगा, क्योंकि साहित्यदर्पण के षष्ठ परिच्छेद के "भवेदगूढ़ शब्दार्थः क्षुद्रचूर्णकसंयुतः। नाना विधान संयुक्तो नातिप्रचुर पद्यवान् ॥" चम्पू :१३