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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/११४

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इत्यादि से प्रमाणित होता है कि नाटक में क्षुद्रचूर्णक (गद्य-भेद होना चाहिये, और बहुत से पद्य न होने चाहिये । अतः अग्निपुराण मत सिद्ध दृश्यकाव्य मिन ही होता है। अब, श्रव्यकाव्य को साहित्याचार्य की कारिका तीन भागों में विभाजित करती है (जिसके अर्थ पर ध्यान न देने से ही नरहरि चम्पूकर्ता चम्पू को दृश्य भी मानते हैं), वह यह है "गद्यं पद्यं तथा गद्यपद्यश्रव्यमिति त्रिधा" गद्य, पद्य, तथा गद्यपद्य-जिस गद्यपद्य को साहित्यदर्पणकार श्रव्य भेद के अन्त में लिखते हैं अथ गद्यपद्यमयानि । ___"गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूपरित्यभिधीयते" और टीकाकार तर्कवागीश महाशय ने भी लिखा है "गद्य पद्यमयानि अव्यकाव्यानि इत्यर्थः भेदाः श्रव्यकाव्य विशेषाः।" इससे यह सिद्ध हुआ कि चम्पू दृश्य नही किन्तु श्रव्य ही होता है, मिश्र होने ही से दृश्य काव्य चम्पू नही होता है। संस्कृत में अद्यावधि चम्पू नामाकित जितने ग्रन्थ देखने में आते है, वे सब श्रव्य है । गद्यपद्यमय नाटक शाकुन्तलादि चम्पू नही कहे जाते है। यह भी एक दृष्टान्त है कि संस्कृत मे अद्यावधि किसी नाटक को, जो कि प्रायः गद्य-पद्य-मय होते ही है, चम्पू नही कहते । अतः अग्निपुराण के 'मिश्रं वपुरिति ख्यातं' इत्यादि में जो मिश्रश्रव्य है अथवा जिसको साहित्याचार्य ने अपनी कारिका "गद्यं पद्यं तथा गद्य-पद्य श्रव्यमिति विधा" में श्रव्य , गद्य पद्यमय माना है, उसी को साहित्यदर्पणकार ने लिखा है कि "गद्य पद्यमयं काव्यं चम्पूपरित्यभिधीयते" और टीमकार ने भी लिखा है (गद्यपद्यमयानि श्रव्यकाव्यानीत्यर्थ)। इन प्रमाणों से यह सिद्ध हो गया कि चम्पू नामांकित गद्य पद्य-मय श्रव्यकाव्य ही होता है, और दृश्य जिसकी कि मिश्र प्रणाली ही है चम्पू नहीं कहा जा सकता। वास्तव में ऐसे गद्यपद्यमय दोनो के होने से इसमें दोनों का आनन्द मिलता है। १. नैषधचरित-चर्चा में श्रव्यकाव्य तीन प्रकार का है गद्यपद्यात्मक, गद्यात्मक और पद्यात्मक । गद्यपद्यात्मक काव्य को चम्पू कहते है -जैसे रामायणचम्पू, भारतचम्पू इत्यादि । नागरी में इस प्रकार का कोई अच्छा ग्रन्थ नहीं है, लल्लूलाल के प्रेममागर को कथंचित् इस कक्षा में सन्निविष्ट कर सकते हैं किन्तु इसे यदि हम चम्पू मानें, तो राजा जगमोहन सिंह के श्यामा स्वप्न को भी चम्मू क्यों न माने पर नहीं, वह चम्पू नहीं हो सकते । १४ प्रसाद वाङ्मय