पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/११६

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कविता रसास्वाद कविता कोई मूर्तिमती देवी नहीं है, जो उसका दर्शन कर लिया जाय, पर तो भी श्रीहर्ष ने सरस्वती-वर्णन के समय सरस्वती के कुछ अंगों से इसकी समता की है, जैसे "जात्यावृत्तेन च भिद्यमानं छन्दो भुजद्वन्द्वममूद्यदीयम् । श्लोकार्ध विश्रान्तिमयी भविष्णुः पर्वद्वयीसन्धि सुचिह्नमध्यम् ॥" इसलिये सरस्वती के अंगों मे इसकी गणना हो सकती है, पर नही यह तो उसके स्थूल रूप का मान है। रसात्मक कविता तो कुछ अलौकिक होती है, क्योंकि साहित्य-दर्पणकार ने लिखा है - "सत्वोद्रेकादखण्डस्वप्रकाशानन्द चिन्मयः वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो ब्रह्मास्वाद सहोदरः अस्तु, जब सतोगुण का हृदय में उद्रेक होता है तब उसका अलौकिक आलोक हृदय पट पर अंकित होता है। स्वप्रकाश और चिन्मय होने से उसका आस्वाद ब्रह्मज्ञान की समता मे समझा जाता है, और वास्तव मे 'शब्द ब्रह्म' है भी ठीक उसी तरह जैसे वीणा का कोमल स्वर अंगुली और तार के सम्मिलब से उत्पन्न होता है। शब्दों के मनोरम संगठन स्वरूपी अंगुली का चालन हृदयतन्त्री को अपूर्व राग से भर देता है, पर वह राग कैसा है ? और क्यो मनोहर है ? उसका क्या परिणाम है ? पह सब बातें उस मनोमुग्धकारी स्वर के सुनने के समय कुछ प्रतीत नही होता, केवल उसकी मोहिनी आकर्षण शक्ति मे मनुष्य उमके अनुभव के समय चेतना विहीनसा रहता है। यद्यपि उम गान के समाप्त होने पर यह मब धीरे-धीरे ध्यान मे ले आ सकता है कि यह कौन राग था, और कौन पर था, पर सुनने मे तो वह अलौकिक आनन्द मे आत्मविस्तृत मा हो जाता है। अस्तु, उमी तरह कविता का भी आस्वाद अनोखा है। कविता के आस्वाद करने वाले के हृदय में एक अपूर्व आह्लाद होता है, और वह कमा है ? यह व्यक्त नही किया था सकता, क्योंकि जो भावुक है वह अपने अनुभवों के प्रतिवर्तन करने मे वा तदनुकूल कविता पाठ करने के समय, अपने हृदय को वाह्यज्ञान शून्य कर एक अथाह आनन्द सिन्धु में छोड़ देता है। लक्ष्य उसका आह्लाद ही रहता है, चाहे वह वीर रस की कविता पढे, वा शृंगार, वा करुण, यह १६ : प्रसाद वाङ्मय