इन्ही महात्माओं की कृपा से हिन्दी साहित्य-प्रेमियों को शृंगार रस का नाम सुनते ही घृणा उत्पन्न होती है । और इसी कारण से प्रायः लोगों की अरुचि छन्दों के ग्रन्थ पढ़ने में हो रही है। 'सरस्वती' हिन्दी में एक बहुमूल्य पत्रिका है, और उसका आदर भी है, पर क्या उसके सब अंश सबके मनोनीत होते है ? कोई उसके गद्य लेखों पर प्रसन्न हैं, तो कोई चित्रों पर, कोई उसके रूप पर प्रसन्न हैं तो कोई उसकी छपाई पर । अधिकांश महाशय ऐसे है जो चित्र और गल्प तक ही रह जाते हैं, उसकी कविता का मर्म समझने की बात तो दूर है, उस पर ध्यान भी नहीं देते। यह क्यों, छन्द विषयक अरुचि है ? इसका कारण यह है कि सामयिक पाश्चात्य शिक्षा का अनुकरण करके जो समाज के भाव बदल रहे है उनके अनुकूल कविताएं नही मिलती और पुरानी कविता को पढ़ना तो मानो महादोष-सा प्रतीत होता है, क्योकि उस ढंग की कविता बहुतायत से हो गयी है। पर नहीं, उनसे घबड़ाना नही चाहिए, उनके समय के वही भाव उज्ज्वल गिने जाते थे, और अब भी पुरातत्त्व की दृष्टि से उन काव्यों को पढ़ने मे अलौकिक आनन्द मिलता है। अस्तु, पाठकों के अरुचि दिखलाने से कविता का बड़ा ह्रास हो सकता है । हमने प्रायः सुना है कि वह 'भटई' कविता है, किन्तु पाठको ! ध्यान से देखो, यदि भट्टीय काव्यों की जैसलमेर में स्थिति न होती, तो टाडसाहब आज दिन इतना बड़ा 'राजस्थान' (ग्रन्थ) बनाने में न समर्थ होते। हिन्दी में वसन्त-कानन की मधुर शोभा है, पर गम्भीर तरंगमय अनन्त महासागर की कल्लोल मालाएँ दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। हम मानते है कि देव और तुलसी की कविता में आप मधुरता विशेष पाते है, पर उन्मादकारिणी तथा आपे से बाहर कर देनेवाली कविता, आपको कही नही दिखाई देती। किन्तु ठहरो, देखो जब मनुष्य को आन्तरिक शक्ति का ह्रास होता है. तब वह नशा इत्यादि से अपने हृदय को वेगवान बनाना चाहता है। 'शृंगाररस' की मधुरता पान करते- करते आपकी मनोवृत्तियां शिथिल तथा अकुला गयी है। इस कारण अब आपको भावमयी, उत्तेजनामयी, अपने को भुला देनेवाली कविताओं की आवश्यकता है। अस्तु, धीरे-धीरे जातीय संगीतमयी, वृत्ति-स्फुरणकारिणी, आलस्य को भंग करने- वाली, आनन्द बरसानेवाली, धीर गम्भीर पद विक्षेपकारिणी, शान्तिमयी कविता की ओर हम लोगों को अग्रसर होना चाहिए। वह समय अब दूर नहीं है, सरस्वती अपनी मलिनता को त्याग कर रही है, और नवलरूप धारण करके प्राभातिक उषा को भी लजावेगी, एक बार वीणाधारिणी अपनी वीणा को पंचम स्वर में फिर ललकारेंगी, भारत की भारती फिर भी भारत ही की होगी। (इन्दु-कला २, किरण १, श्रावण १९६७) . २६: प्रसाद वाङ्मय
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