भक्ति 1 मनुष्य जब आध्यात्मिक उन्नति करने लगता है, तब उसके चित्त मे नाना प्रकार के भाव उत्पन्न होते है, और उन्ही भावो के पर्यालोचन मे उसके हृदय मे एक अपूर्व शक्ति उत्पन्न होती है, उसे लोग 'चिन्ता' कहते है । वह चिन्तित मनुष्य संसार मे किसी "अघटन घटना घटीयसी" शक्ति की लीला देखते-देखते मुग्ध होकर उस शक्तिमान की खोज करता है। जब वह भ्रमता है, तब उसे उन पथदर्शको की मधुर सान्त्वनामयी वाणी कर्णगोचर होती है- "श्रद्धाभक्तिज्ञानयोगादवैहि" अस्तु ! यदि उस मर्व-शक्तिमान को कोई ऊँची वस्तु मान लिया जाय, तो भक्ति उसे पाने का दूसरा सोपान है. नही तो ऐसा ही मान लिया जाय कि किसी निर्दिष्ट स्थान तक पहुंचने की, एक सहारे की शृखला है, जिसमे कि ये चार कडियां है। इनमे ऐसा घना सम्बन्ध है कि वह किसी प्रकार से नही छ्ट सकता। मानव-सृष्टि धारा-प्रवाह की तरह उग महासागर की ओर जा रही है। उस धारा-प्रवाह मे श्रद्धा जल है, भक्ति वेग है तथा उमका गमन ही ज्ञान है, और उसका योग हो जाना ही महासम्मेलन है। 'श्रद्धा' 'भक्ति' में केवल नामान्तर है, श्रद्धा का पूर्ण स्वरूप भक्ति है, भक्ति बिना पहचाने होती नही, और विना मिले जाना भी नही जाता, इसी से कहते है कि इनका परस्पर घना सम्बन्ध है । इसे नामान्तर अथवा भाव-भेद भी मान सकते है। श्रद्धा के परिपाक में भक्ति मे उसे मनुष्य कहता है - "सत्य" । जब उसके मंगलमय स्वरूप को देखता है, तब उसके मुख मे अनायास ही -"शिव" - निकलता है, पुन. मनुष्य उस अलौकिक सौन्दर्य से आनन्दित होकर कहता है- "सत्यं शिवं सुन्दरम् ।" भक्ति क्या है ? भक्ति ईश्वर मे अनन्य प्रेम को कह सकते है और भक्ति को परीक्षा ज्ञान भी कह सकते है । ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। किन्तु मुक्ति से क्या है ? मुक्ति से मनुष्य ईश्वर मे मिल सकता है और भक्ति से मनुष्य ईश्वर को अपने पास बुला सकता है। प्रजा यदि राज-राजेश्वर के समीप तक जाय, तो उसे आनन्द मिलता है, किन्तु यदि राजराजेश्वर किसी प्रजा के घर पर जाय, तो उसे कितना आनन्द मिलेगा? यह विचारणीय है । ३८. प्रसाद वाङ्मय
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