पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१३९

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भक्तों की कथा को पढिए, क्या विश्वम्भर उनके आर्तनाद को सुनकर देर कर मकते थे ? नहीं, कदापि नही । अतः हम कह सकते है कि भक्ति से मनुष्य ईश्वर को बुला सकता है, और जब यह हमारे पास आ मकते हैं, तो कौन ऐसी वस्तु है कि जो वह हमको नही दे सकते ? हां, भक्तिरूपी कल्पवृक्ष मे अविश्वास का घुन न लगने देना चाहिए। निराशा मे, अशान्ति मे, सुग्व मे, उस अपूर्व मुन्दर चन्द्र की भक्तिरूपी किरण तुम्हें शान्ति प्रदान करेगी। और यदि तुम्हे कोई कष्ट हो, तो उस अशरण-शरण- चरण में लोटकर रोओ, वे अश्रु तुम्हे सुधा के समान सुखद होंगे और तुम्हारे सब संताप को हर लेगे। उस चरण-सरोज सौरभ मे तुम्हारी मस्तिष्क-निर्बलता दूर हो जायगी, तुम्हारा घ्राण अपूर्व सुगन्ध से आमोदित हो जायगा। तुम्हारे पास चिन्ता, निराशा, कभी फटकने न पावेगी। तुमको किसी की अपेक्षा न करनी पड़ेगी। हम जो करते है, जो सुनते है, जो देखते है, जो समझते है, सब वही है। जब यह बुद्धि हो जाती है, तब मनुष्य को आनन्द-ही-आनन्द मिलता है. संसार आनन्दमय प्रतीत होता. ' विशेष क्या लिख, महर्षि उपमन्यु की उग्र तपस्या से प्रसन्न होकर, परमेश्वर ने स्वयं उपमन्यु से पूछा "क वा कामं ददाम्यद्य ब्रूहि यद् वत्स ! कांक्षसे" तब प्रेम महित गद्गद होकर विनीत स्वर मे-- "प्राञ्जलिः स उवाचेदं त्वयि भक्तिर्दढ़ास्तु मे।" भक्ति: ३९