पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/१४८

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वाङ्मय में दो प्रकार से मानी गई है- काव्य और शास्त्र । शास्त्र मे श्रेय का आज्ञात्मक ऐहिक और आमुष्मिक विवेचन होता है और काव्य मे श्रेय और प्रेय दोनों का सामंजस्य होता है। शास्त्र मानव-समाज मे व्यवहृत सिद्धातो के संकलन हैं। उपयोगिता उनकी सीमा है । काव्य या साहित्य आत्मा की अनुभूतियो का नित्य नया-नया रहस्य खोलने मे प्रयत्नशील है, क्योकि आत्मा को मनोमय, वाङ्मय और प्राणमय माना गया है। अयमात्मा वाडमय. प्राणमय' (बृहदारण्यक)। उपविज्ञात प्राण विज्ञात वाणी और विजिज्ञास्य मन है । इसीलिए कवित्व को आत्मा की अनुभूति कहते हे। मनन-शक्ति और मनन से उत्पन्न हुई अथवा ग्रहण की गई निर्वचन करने की वाक्-शक्ति और उनके सामजस्य को स्थिर करनेवाली सजीवता अविज्ञात प्राणशक्ति, ये तीनो आत्मा की मौलिक क्रियाएं हैं । मन सकल्प और विकल्पाश्मक है। विकल्प विचार की परीक्षा करता है। तर्क- वितर्क कर लेने पर भी किसी सकल्पात्मक प्रेरणा के ही द्वारा जो सिद्धात बनता है, वही शास्त्रीय व्यापार है। अनुभूतियो की परीक्षा करने के कारण और इसके द्वारा विश्लेषणात्मक होते होते उसमे चारुत्व की, प्रेय की कमी हो जाती है। शास्त्र- संबधी ज्ञान को इमीलिए विज्ञान मान सकते है कि उसके मूल में परीक्षात्मक तर्को की प्रेरणा है और उनका कोटि-क्रम स्पष्ट रहता है । काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा है । विश्लेषणात्मक तर्कों से और विकल्प के आरोप से मिलन न होने के कारण आत्मा की मनन-क्रिया जो वाइमय रूप मे अभिव्यक्त होती है, वह नि सदेह प्राणमयी और सत्य के उभय लक्षण प्रेय और श्रेय दोनो से परिपूर्ण होती है । इसी कारण हमारे साहित्य का आरभ काव्यमय है। वह एक द्रष्टा कवि का सुदर दर्शन है। संकल्पात्मक मूल अनुभूति कहने से मेरा जो तात्पर्य है, उसे भी समझ लेना होगा। आत्मा की मनन-शक्ति की वह असाधारण अवस्था, जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व मे सहमा ग्रहण कर लेती है, कथ्य में सकल्पात्मक मूल अनुभूति कही जा सकती है। कोई भी यह प्रश्न कर सकता है कि सकल्पात्मक मन की सब अनुभूतियां श्रेय और प्रेय दोनो ही से पूर्ण होती है, इसमे क्या प्रमाण है किंतु इमीलिए माथ-ही-साथ असाधारण अवस्था ग भी उल्लेख किया गया है । असाधारण अवस्था युगो को समष्टि अनुभूतियो मे अतर्निहित रहती है; क्योकि सत्य अथवा श्रेय ज्ञान कोई व्यक्तिगत सना नही, वह एक शाश्वत चेतनता है, या चिन्मयी ज्ञान-धारा है, जो व्यक्तिगत स्थानीय केटो के नष्ट हो जाने पर भी निविशेष रूप से ? ४८.प्रसाद वाङ्मय