भाव का भी समावेश था, मधुरता के साथ । प्रेम के.पुट में तल्लीनता ही देतदर्शन की सीमा बनी। भारत के कृष्ण में अट्ठारह अक्षौहिणी के विनाश-दृश्य के सूत्रधार होने की भी क्षमता थी और नर्तक होने की रसात्मकता भी थी। वैदिक इन्द्र की पूजा बन्द करके इन्द्र के आत्मवादको पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न श्रीकृष्ण ने किया था, किंतु कृष्ण के आत्मवाद पर बुद्धिवाद का इतना रंग चढ़ाया गया कि आत्मवाद तो गौण हो गया, पूजा होने लगी श्रीकृष्ण की। फिर विवेकवाद की साहित्यिक धारा को उनमें पूर्ण आलम्बन मिला। उन्हीं के आधार पर अपनी सारी भावनाओं को कुछ-कुछ रहस्यात्मक रूप से व्यक्त करने का अवसर मिला। मीरा और सूर, देव और नन्ददास इसी विभूति से साहित्य को पूर्ण बनाते रहे। रस की प्रचुरता यद्यपि थी, क्योंकि भारतीय रीति ग्रन्थों ने उन्हें श्रव्य में भी बहुत पहले ही प्रयुक्त कर लिया था, फिर भी नाटय-रसों का साधारणीकरण उनमें नहीं रहा । एक बात इस श्रव्य-काव्य के सम्बन्ध में और भी कही जा सकती है। अवध में कबीर के समन्वयकारक हिन्दू-मुसलमानों के सुधारक निर्गण राम और तुलसीदास के पौराणिक राम के धार्मिक बुद्धिवाद का विरोध, भाषा और प्रांत दोनों साधनों के साथ, व्रजभापा मे हुआ। कृष्ण मे प्रेम, विरह और संघर्ष वाले सिद्धांत का प्रचार करके भागवत के अनुयायी श्री वल्लभस्वामी और चैतन्य ने उत्तरीय भारत में उसी कारण अधिक सफलता प्राप्त की थी। उनकी धार्मिकता में मानवीय वासनाओं का उल्लेख उपास्य के आधार पर होने लगा था। फलतः कविता का वह प्रवाह व्यापक हो उठा। सुधारवादी शुद्ध धार्मिक ही बने रहे। रामायण का धर्मग्रन्थ की तरह पाठ होने लगा, परन्तु साहित्य-दृष्टि से जन-साधारण ने कृष्ण चरित्र को ही प्रधानता दी। समय-समय पर आवरण में पड़ी हुई मानवता अपना प्रदर्शन करती ही है । मनुष्य अपने सुख-दुःख का उल्लेख चाहता है । वर्तमान खड़ी बोली उसी आत्मानुभूति को, युग की आवश्यकता के अनुसार- वह राष्ट्रीयता की हो या वेदना की-सीधे- सीधे कहने में लगी। कहना न होगा कि सीतल इत्यादि ने खड़ी बोली की नीव पहले से रख दी थी। सहचरी शरण-कही-कही कबीर और श्री हरिश्चन्द्र ने भी इसको अपनाया था। हिन्दी के इस पाठ्य या श्रव्य-काव्य में ठीक वही अव्यवस्था है, जैसी हमारे सामाजिक जीवन में विगत कई सौ वर्षों में होती रही है । रसात्मकता नहीं, किन्तु रसाभास ही होता रहा। यद्यपि भक्ति को भी इन्ही लोगों ने मुख्य रस बना लिया था, किंतु उसमें ब्याज से वासना की बात कहने के कारण वह दृढ़ प्रभाव जमाने से असमर्थ थी। क्षणिक भावावेश हो सकता था। जगत और अंतरात्मा की अभिन्नता की विवृति उसमें नहीं मिलेगी। एक तरह मे हिन्दी-काव्यों का यह युग संदिग्ध और १००:प्रसाद वाङ्मय
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