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प्रतिमा सिद्ध किया। बिहार एवं उड़ीसा रिसर्च सोसायटी की पत्रिका (खण्ड ५, सन् १९१९, पृ० ५५० ) में उन्होने विश्लेषणपूर्वक उक्त लेख का पाठोद्धार "निमद प्रशेनि अज (1) सत्रु राजो (सि ) (रि) र कुणीक शेवासिनागो माग (धा ) नं राजा" के रूप में किया है। स्टेनकोनो ( इं० ऐटि १९०९; पृ० १४०), राम प्रसाद चन्द्रा (इ० ऐटि० १९१९, पृ० २१-२३), मो० सी० गांगुली ( माडर्न रिव्यू, १९१९ ) और वोगल (कैटेलाग ऑफ मथुरा म्यू०, पृ० ८३ ) के भी उक्त प्रतिमा विषयक शोध प्रकाश मे आए, जिनका समुचित उत्तर श्री जायसवाल ने वि० उ० रि० सो० पत्रिका (खण्ड ६, भाग २, पृ० १७३-२०४, सन् १९२० ) मे दिया है। इससे उनकी स्थापना निश्चय ही पुष्ट सिद्ध हुई । म० म० डॉ० गौरीशंकर हीराचद ओझा ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका मे और म०म० हर प्रमाद शास्त्री ने बि० उ० रि० पत्रिका (जिल्द ५, भाग ४, पृ० ५५२-६३ ) मे उनकी स्थापना का विस्तार पूर्वक समर्थन किया। कनिंघम के उक्त प्रतिमा को यक्ष-प्रतिमा कहने से स्टेनकोनो प्रभृति विद्वानो को भ्रम हुआ। कनिंघम ने उसे देव-पूजा की प्रतिमा के रूप में ईगुर-सदूर लगी हुई पाया और ग्रामीण जनश्रुति के आधार पर तथा कुछ पूर्व निर्धारित मतो से प्रभावित होकर यक्ष मान लिया। न तो टंकित लेख का शोध किया, न उसके ऐतिहासिक महत्व की ओर ध्यान दिया। आधारवेदी के अगले भाग का लेख भी उनकी दृष्टि में नहीं आया। उनके सामने तो उस समय की यही प्रबल धारणा थी कि भारत मे यवन-आक्रामकों के साथ ही मूर्तिकला का प्रवेश हुआ। किन्तु यह मत भ्रमपूर्ण था, क्योकि ऋग्वेद के साम्यायन ब्राह्मण मे प्रतिमाओ का उल्लेख है (यदिडामुपयते यन्मार्जते... पाणी प्रतिच्छेद तस्मै हिरण्मयो प्रतिदधुम्तरमाद्धिरण्यपाणिरिति) तथा उसी ब्राह्मण म गत्रि, कालदेव आदि की प्रतिमाओ का भी उल्लेख है। और भी, शुगकाल भे खारवेल अपनी प्रशस्ति (कुमारी पर्वत अर्थात् खण्डगिरि उदयगिरि, उड़ीसा, ई० पू० १७५) मे कलिग की उस जिन मूर्ति का उल्लेख करता है (ना०प्र० पत्रिका, भाग ८, पृ. ३१६) जिसे नन्द ४५८ ई० पू० पाटलिपुत्र ले गया । महावीर निर्वाण के कुछ दशको बाद ही भारतीय प्रतिमाओं का यह भौतिक प्रमाण तथा परखम मूर्ति का प्रौढ कलापूर्ण वस्त्रविन्यास आदि सूचित करते है कि भारत में यह कला उस समय (बुद्धकाल मे) उन्नत थी। अवश्य ही उसे प्रौढ़ होने मे कम समय न लगा होगा और वह प्रतीकोपासना के साथसाथ बहुत पहले चली होगी, जब कि अन्य बहुत-सी सभ्यताये भविष्य के गर्भ में रही, ऐसा नही कि उसका आयात विदेशी आक्रामकों के द्वारा हुआ। अजातशत्रु-कथा प्रसंग : २१