कपनानुसार आवित्तं है, टाह (Ptah) ने पूर्व से ही जाकर मिस्र में सभ्यता फैलायी, और सुमेरिया के आदि-निवासी और भारत के आर्य एक ही वंश के हैं तब हम उस प्राचीन ऋषि के इस कथन को क्यों न सत्य मान लें- एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।। अब सबसे पहले हमें उस देश को खोजना होगा जहाँ ये अग्रजन्मा उत्पन्न हुए। आर्यों के अग्रजन्मा देव थे; ऐसी ही अनेक विद्वानों और आर्य-शास्त्रों की सम्मति है । देवगण की प्रधान भूमि का पता आर्य साहित्य में 'मेरु' नाम से लगता है । कहा जाता है कि मेरु पर देवताओं का स्वर्ग है। पांडवों के महाप्रस्थान की यात्रा में उत्तर कुरु के ममीप ही मेरु और स्वर्ग का वर्णन मिलता मेरु है। आदिपर्व (१२२ अध्याय) के अनुसार पांडव पहिले किंपुरुष- वर्ष पहुंचे, फिर उत्तर-हरिवर्ष गये, और तब उत्तर-कुरु के द्वार पर पहुंचे। इस उत्तर-कुरु को विजय करने से वे रोके गये और उनसे कहा गया कि यह देवभूमि है। यही से कुछ उपहार लेकर वे लौट आये। 'बृहत्संहिता' में उत्तर प्रदेश के प्रसंग में कहा गया है- उसरतः कैलासो हिमवान् वसुमान गिरिधनुष्मांश्च । क्रौंचो मेरुः कुरवो तथोत्तरा क्षुद्रमीनाश्च ॥ १४-२४ ॥ मेरु और उसके पाम ही उत्तरकुरु का वर्णन है। कई प्राचीन ग्रंथों में मेरु के समीप ही उत्तर-कुरु का नाम आने से प्रतीत होता है कि ये दोनों देश और पर्वत- पास-पास के हैं । यह उत्तर-कुरु प्रदेश भारतीय उपाख्यानों में पवित्र और पूर्वजों का देश माना जाता है । भीष्म-पर्व (महाभारत) मे इसका विशद वर्णन हैं। यहां के लोग शुक्ल (गौरवर्ण), अभिजात, सम्पन्न, नीरोग और दीर्घ-जीवी होते हैं। इस प्रदेश का अनुसंधान लग जाने मे मेरु का पता भी चल सकता है । सामश्रमी महोदय लिखते हैं-"अस्ति चान्य: कुरुवर्ष. स नूनं मेरुसम्बद्ध"२-किंतु. वे उत्तरकुरु को तिब्बत मानते हैं। परन्तु निव्वत की प्राचीन सीमा आजकल की शासन-सीमा से निर्दिष्ट नहीं की जा सकती। वर्तमान निब्बत काश्मीर के द्वारा उसी भूमि से संलग्न है जिसे हम आगे चलकर बतावेगे। युधिष्ठिर के राजसूय में तंगण देश के निवामियों के कुछ उपहार दिये थे। ये लोग मेरु और मंदराचल के बीच बहनेवाली शैलोदा-नदी के तट के रहने वाले थे १. संभव है त्वष्टाः से त्वष के लोप से त्वष्टा: टाह (Ptah) हो गया हो। (सं०) २. अस्ति चान्यः कुरुवर्ष. स नूनं मेरु सन्निहित.- यह पाठ ऐतरेयालोचन के द्वितीय संस्करण (कलकत्ता १६ .६) के पृष्ठ ४२ पर प्राप्त है । (सं०) ११४ : प्रमाद वाङ्मय
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