पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२२६

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प्रकट होता है। उस समय चन्द्रमा की ही प्रधानता रहती है। चन्द्रमा में सुधा, औषधियों की जीवन-सत्ता मानने वाले लोग थे। असुर शब्द की व्युत्पत्ति' (असून् प्राणान् रक्षति) भी इसी का द्योतक है। क्योंकि वेदों में वरुण प्रायः असुर उपाधि से संबोधित किये गये हैं। इस प्रकार के असुरोपासकजन प्राण-रक्षक केवल आकाशस्थ वरुण की प्रधानता मानते थे। उस प्राचीन काल में विचारधारा का आकस्मिक परिवर्तन हुआ और ज्ञान की विभिन्नता से सामाजिक और धार्मिक संघर्ष चला। तब उन अग्रजन्माओं में दो प्रधान भेद हुए।' एक प्राचीन वरुण के अनुयायी असुर और दूसरे इन्द्र के नेतृत्व में देवगण : और, त्वष्टा के नेतृत्व में असुर लोग रहने लगे। इन्हीं त्वष्टा अर्थात् जरथुष्ट्र, जरत्वष्ट्रि को प्राचीन अहुर्मज्द (Ahurmazd) असुर महत् के उपासक पारसी आर्यों ने अपना आचार्य माना। वाह्नीक में इन लोगों का १. इस संदर्भ में अवलोकनीय होगा- "जीवन का लेकर नव विचार जब चला द्वंद्व था असुरों में प्राणों की पूजा का प्रचार उस ओर आत्मविश्वास-निरत सुर-वर्ग कह रहा था पुकार 'मैं स्वयं सतत आराध्य आत्म-मंगल-उपासना मे विभोर उल्लासशील मैं शक्ति-केंद्र, किसकी खोजूं फिर शरण और आनंद-उच्छलित-शक्ति-स्रोत जीवन-विकास वैचित्र्य भरा अपना नव-नव निर्माण किये रखता यह विश्व सदैव हरा प्राणों के सुख-साधन में ही संलग्न असुर करते सुधार नियमों में बंधते दुनिवार था एक पूजता देह दीन दूसरा अपूर्ण अहंता में अपने को समझ दोनों का हठ था दुनिवार, दोनों ही थे विश्वाम-हीन- फिर क्यों न तर्क को शस्त्रों से वे सिद्ध करें--क्यों हो न युद्ध उनका संघर्ष चला अशांत वे भाव रहे अब तक विरुद्ध मुझमें ममत्त्वमय आत्म-मोह स्वातंत्र्यमयी उच्छृखलता हो प्रलय-भीत तन रक्षा में पूजन करने' की व्याकुलता वह पूर्व द्वंद्व परिवर्तित हो मुझको बना रहा अधिक दीन सचमुच मैं हूँ श्रज्ञा-विहीन ।” कामायनी-इड़ासर्ग (सं.) 8. One of them, Isatvastra, a son of the second wifc, subsequently, रहा प्रवीण १२६ : प्रसाद वाङ्मय