पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२२७

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प्रधान धार्मिक केंद्र था। पिछले काल में यहां की अग्निशाला और देव मन्दिर का एक नया रूप हो गया था। किंतु बौदों से पहले प्राचीन काल में यह अहुज्द का प्रधान उपासना मन्दिर था। इब्न फजलुल्लाह अलउमरी मिस्री ने अपनी मसालिकुल अन्सार के ममालिकुल असार में बल्ख (वाह्लीक) के इस मन्दिर का नाम नौबहार दिया है । उसके बनाने वाले भारत के किसी राजा का उल्लेख करते हुए वह लिखता है कि यहां पर नक्षत्रों की पूजा करने वाले लोग आते थे, जो चंद्र-पूजक थे। इसके प्रधान पुजारी का नाम बरमक होता था। वर-मग से मगों में श्रेष्ठ याजक लक्षित होता है । मग लोग ही मज्द धर्मावलंबी कहे जाते थे - जो परवर्ती काल का -ईरान का धर्म था। ऋग्वेद मे त्वष्टा और इंद्र के संघर्ष का स्पष्ट विवरण है, जिसके मूल में एक क्षुद्र घटना थी-'त्वष्टु! हेअपिबत्सोममिन्द्रः' (ऋक् ४-१८-३)-सोम के लिए इंद्र और त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप में कलह हुआ था। इस प्रकार प्राचीन आर्यावर्त में ही उन अग्रजन्माओं में पारस्परिक युद्ध होकर दो विभाग हो गये और सरस्वती तट पर वृत्र-असुर के मारे जाने से असुरोपासक आर्य धीरे-धीरे पश्चिमी ईरान की ओर मीडिया तक हटने को बाध्य हुए। ऋग्वेद मे त्वाष्ट्र को दास कहा गया है।' यही स्वाष्ट्र वृत्रासुर था, जिसका वध इंद्र ने किया । यो तो इसका नाम वृत्र था। परन्तु अहिशब्द से भी यह संबोधित किया गया है । "तस्माद् वृत्रोऽथ यदप्रात्समभवत्तस्मा- दहिस्तंदनुश्च दनायूश्च मातेव च पितेव च परिजगृहतुस्तस्माद् दानव इत्याहुः"- (शतपथ, १-५-२-९) अर्थान् दनु और दनायु ने माता-पिता के समान उसको अपनाया इसलिए उसे दानव भी कहते है। दास, असुर और दानव ये सभी विरोध. सूचक शब्द हैं। ऋग्वेद के-"इन्द्रस्थ नु वीर्याणि प्र वोचं"- (१-३२-१) इत्यादि मन्त्रों में इन्द्र के वीर्य और पौरुष का वर्णन है। उसमें वृत्र को मारकर सप्तसिंधु के जलों को मुक्त करने की भी चर्चा है जो उसी सूक्त के बारहवें मन्त्र "अजयो गा अजयः शूर सोम- मवासृजः सतवे सप्तमिधून्"-में उल्लिखित है। जिस प्रकार त्वाष्ट्र असुर-वीर था, उसी प्रकार ऐतिहासिकों के मत से इन्द्र कई जगह संबोधित किये गये हैं । ऋग्वेद के became head of the priestly class. (p. p. 15 and 16, Zoroaster by Bernard H. Springen) १. सनेम ये त ऊतिभिस्तरन्तो विश्वा: स्पृध आपण दस्यून् । अस्मभ्यं तत्त्वाष्ट्रं विश्वरूपमरन्धयः साव्यस्य त्रिताय ।। (ऋक् २-११-१९) प्राचीन आर्यावर्त : १२७