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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२२८

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मण्डल १०, सूक्त १२० में इन की उत्पत्ति के संबन्ध में लिखा है "तदिदास भुवनेषु ज्येष्ठं यतो जा उग्रस्त्वेष नृम्णः" (मन्त्र १)। यह नृम्ण (पौरुष की भूति अषवा मनुष्यों से संपर्क रखने वाला) भुवन में ज्येष्ठ उच्च स्थान अर्थात् मेरु प्रदेश में उत्पन्न हुआ। इन्द्र के पार्षिक सदन का भी उल्लेख है "प्रति प्र पाहीन्द्र मीळह पो नृन्महः पापिये सदने यतस्व (१-१६९-६)।" इंद्र की उत्पत्ति का भी उल्लेख मिलता है। "पुरा भिन्तुर्युवा कविरमितीजा अजायत । इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता बची पुरुष्टुतः” (१-११-४) । इन्द्र के लिये दीर्घायु होने की भी प्रार्थना मिलती है-"परि त्वा गिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः । वृद्धायुमनुवृद्धयो जुष्टा भवन्तु जुष्टयः (१-१०-१२)।" इन्द्र के लिये सुन्दर नासिका वाला और अयस् का वज़ धारण करने वाला तथा सुन्दर घोड़ों के रथ पर उसके चलने की प्रशंसा अनेक मन्त्रों में मिलती है-"क्रत्वा महां अनुष्वधं भीम आ वावृधे शवः । श्रिय ऋष्व उपाकयोनि शिप्री हरिवान्दधे हस्तयोवज्रमायसम् (१-८१-४) त्वमिन्द्र नर्यो यो अवो नृन्तिष्ठा वातस्य सुयुजो वहिष्ठान् यन्ते काव्य उशमा मन्दिरं दाद् वृत्रहणं पायं ततम वचम् (१-१२१-१२)" '-"न त्वा वा अन्यो दिव्यो न पापिवी न जातो न जनिष्यते" (७-३२-२३)। इममें इन्द्र के समान किसी के न होने का उल्लेख है। सुदास 4जवन से इन्द्र की मंत्री का भी वर्णन मिलता है, जब कि सुदास ने इन्द्र से मैत्री के लिये प्रार्थना की थी-"वयमिन्द्र त्वायवः सखित्वमा रमामहे (१०-१३३-६)। "इन्द्र का सम्बन्ध मनुष्यों से था-"इन्द्र क्षितीनामसि मानुषीणां विशां -(३-३४-२)।" दिवोदास इत्यादि आयो के युद्ध में इन्होंने बहुत सहायता दी थी। यह सम्राट भी हुए-"आवदिन्द्रं यमुना तृत्सवश्च"-(७-१८-१९) का अर्थ करते हुए सामश्रमी ने लिखा है-'यः इन्द्रः सम्राट" .........' इत्यादि । पिछले काल में इसी कारण सम्राटों का 'ऐन्द्र महाभिषेक' होने लगा और इन्द्र एक पदवी बन गयी। त्वष्टा वेदों में विश्वकर्मा अर्थात् आविष्कारक कहे गए हैं । वैदिक काल का एक प्रमुख व्यक्ति होने के कारण इनके बहुत से अनुयायी थे, किंतु इन्द्र का सम्प्रदाय भी प्रबल हो चला था और इसमें पा-धर्म सम्बन्धी गहरा मतभेद ! त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को भी सोम के लिए इन्द्र ने मारा था। 'गाथा बहुनावती' और 'स्तमैन्यु' में सोम की निंदा का कारण त्वष्टा के पुत्र का बध हो सकता है । दास ने इस ऐतिहासिक घटना को 'माईपालॉजी' से मिला दिया है। वे यह तो मानते हैं कि पुत्रवध से त्वष्टा और उनके अनुयायियों ने इन्द्र का विरोध किया, परन्तु साथ ही वे कहते हैं कि इन्द्र की पूजा भी बन्द कर दी गयी। पर मैं समझता हूँ कि तब तक इन्द्र की पूजा का आरम्भ ही नहीं हुआ था। यही घटना तो इन्द्र को विशेषता देती है, जो पीछे जाकर उनकी पूजा का कारण बन गयी है। १२८: प्रसाद वाङ्मय