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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२२९

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वरुण भी तो स्वष्टा के अनुयायियों में एक ही प्रकार से पूजित नहीं हुए, भिन्न-भिन्न देशों में उनकी पूजा का प्रकार बदलता रहा । इसी त्वष्टा और इन्द्र के विरोध ने धीरे-धीरे देवासुर-संग्राम का रूप धारण कर लिया, नहीं तो पहले इनमें मेल ही था। रामायण में तो यहां तक लिखा है- "असुरास्तेन देतेयाः सुरास्तेनादितेः सुताः । हृष्टाः प्रमुदिता आसन वारुणीग्रहणात्सुराः ॥" (वाल्मीकि) शतपथ के अनुसार देवता और असुर दोनों ही प्रजापति की मन्तान थे। किंतु यह सोम सम्बन्धी झगड़ा बहुत बढ़ा। त्वष्टा की उस समय आर्यों में विशेष प्रतिपत्ति थी परन्तु इन्द्र अधिक बलशाली थे। इस झगड़े में एक रहस्य और भी था। इन्द्र के कुछ नवीन धार्मिक विचार थे, संभवतः वे सृष्टि के प्रथम आत्मवादी थे। उपनिषदों की इन्द्र-विरोचन-कथा में इसका दार्शनिक रूप मिलता है, परन्तु ऋग्वेद में तो (१०-१९९) आत्मस्तुति-परक एक सूक्त ही इन्द्र का है। यद्यपि लोगों ने उसे भ्रम पे मोम पिये हुए इन्द्र की बहक मान लिया है, परन्तु-"अहमस्मि महामहोऽभिनभ्यमुदीषितः" (१२) इत्यादि प्रयोगों को मैं तो ठीक वैसा ही समझता हूँ जैसा पिछले काल मे श्रीकृष्ण का आत्मविभूति का वर्णन गीता में है। क्योंकि, ऋग्वेद १० मण्डल का ४८ वा सूक्त भी इसी भावना से ओत-प्रोत है। देखिए- प्रथम मन्त्र "अहं भुव वसुनः पूर्व्यस्पतिरहं धनानि सं जयामि शश्वतः। मां हवन्ते पितरं त जन्तवोऽहं दाशुषे वि भजामि भोजनम् ।" इसके ऋषि भी स्वयं इन्द्र हैं। वरुण भी देव ! सो भी कैसे ? आकाशस्य ! संसार से बहुत ऊंचे। एक स्वतन्त्र महत्ता से इस आत्मवाद का संघर्ष होना अनिवार्य था। ऐसे आत्मबादी प्रत्येक काल के 'शरियत' मानने वालों के कोपभाजन और नास्तिक बने हैं। त्वष्टा (Zarthustra) ने वाह्लीक के पास अपने प्राचीन धर्म का दृढ दुर्ग बनाया और धर्म का संस्कार कर असुर-उपासना प्रचलित की। "वरुत्रीं त्वष्टुवरुणस्य नाभिमविं जज्ञाना ७ रजसः परस्मात् । मही७ साहस्रीमसुरस्य मायामग्ने मा हिंi सीः परमे व्योमन् ॥" (यजुर्वेद, १३.४४) उक्त मंत्र में त्वष्टा और वरुण का सम्बन्ध और उनकी साहस्री माया का स्पष्ट उल्लेख है । इस सम्बन्ध में ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के स्वराज्यसूक्त (८०) का यह मन्त्र भी देखिये-"अभिष्टने ते अद्रिवो यत्स्था जगच्च रेजते । त्वष्टा चित्तव मन्यव इन्द्र वेविज्यते भियान्ननु स्वराज्यम् ॥" --(१४) "नहि नु यादधीमसीन्द्रं को वीर्या परः । तस्मिन॒म्णमुत क्रतुं देवा ओजांसि सन्दधुरर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥” (१५) मन्त्र- संख्या १४ में साम्राज्य या स्वराज्य स्थापन करने वाले इन्द्र के भय से त्वष्टा को . ९ प्राचीन आर्यावर्त · १२९