कांपते कहा है और १५ में देवों द्वारा इन्द्र में पूर्ण मनुष्यता (नृम्ण) और ओज के स्थापन की घोषणा है। इन्द्र और दाशराज्ञ युद्ध काशी नागरी प्रचारिणी के कोशोत्सव स्मारक संग्रह में प्रकाशित 'प्राचीन आर्यावर्त और उसका प्रथम सम्राट्' नाम के लेख में यह दिखाया जा चुका है कि उस अत्यन्त प्राचीन वैदिक काल मे आर्यों के दो शाखाओं में विभक्त होने का कारण, त्वष्टा और इन्द्र का संघर्ष था। त्वष्टा वेदों मे विश्वकर्मा अर्थात् आविष्कारक कहे गये हैं। वैदिक काल के एक प्रमुख व्यक्ति होने के कारण इनके बहुत से अनुयायी भी थे; किंतु इन्द्र का सम्प्रदाय भी प्रवल हो चला था, और इसमे कारण था धर्म- सम्बन्धी गहरा मतभेद । त्वष्टा का सम्प्रदाय ईश्वरीय महत्ता से पूर्ण धर्म का शासन स्वीकार करता था; किंतु इन्द्र आत्म-विश्वाम के प्रचारक और आत्मवाद के समर्थक थे। संभव है कि, उस प्राचीन काल में इन दोनो सिद्धांतो के साथ-माथ कुछ फुटकर आचार-विवार भी, अपनी विशेषताजो के कारण, मतभेद बढाने में सहायक रहे हों; जैसे, सोम सम्बन्धी भली-बुरी धारणाये कितु प्रत्येक बड़े-बड़े धार्मिक विरोधो के मूल में सिद्धात सम्बन्धी मतभेद - युद्धों का होना अनिवार्य बना देता है । ऋग्वेद में इस धार्मिक संघर्ष का स्पाट परित्तय मिलता है। वरुण उस प्राचीन काल में एक माननीय देवता ये और त्वष्टा इत्यादि वरुण पूजा के प्रधान समर्थक थे। वरुण और त्वष्टा का सम्बन्ध अनेक वैदिक मन्त्रों में मिलता है। वरुण राजा और असुर वहार पूजिन थे। वसिष्ठ-कुल के दाशराज्ञ लोग इस आसना के प्रधान याजा थे। यही असुर-वरुण युद्ध अमीरिया के उपास्य देवता अमुर, ईरान के अहुरमज्द, वेबिलोन के अस्मरमआजश और सुमेरिगा के ई-ओंस थे। वैदिक आर्यो से अलग होकर पिछले काल में ईरानी गर्यो के द्वारा प्रचलित यही सुरवरुण की उपामना अनेक रूपो में पश्चिमी एशिया के प्राचीन सभ्य देशो मे फैली और इधर इन्द्र-पूजा वा इन्द्र का सम्प्रदाय वैदिक आर्यों में प्रधानता ग्रहण करने लगा। कुछ ऐतिहासिकों का अनुमान है कि, इन्द्र-पूजा चैल्डियन लोगो से सीखी गयी। इम्दिगिर जो चैल्डियन लोगो के आंधी-गरज के देवता है, आ के यहां आकर इन्द्र बन गये । इमके विवरण में उनका यह कहना है कि आर्यो के पहले भारत-भूमि दक्षिणी अनार्यद्रविड़ों के स्थान पर तुरानी द्रविड़ो के द्वारा अधिकृत थी और कौशिक लोग इन्द्र-पूजा के प्रचारक थे। इन कौशिको को के 'कुमाइट' के साथ सबद्ध बताते हैं । 'कुसाइट' लोगों को कुछ विशेष कारणो से वे तूरानी-द्रविड़ मानते है । यहाँ पर इन्द्र और 1. J. B, O. R. S. Page 221. Vol. VI. Pt 9. १३.: प्रसाद वाङ्मय
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