पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२३१

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हम इन विद्वानों को उसी भ्रम में सम्मिलित देखते हैं, जिसने रंगोजिन जैसे विद्वान् को भी पुरु-वंशियों को अनार्य-वंशीय मानने के लिए प्रेरित किया था। पुरु, अनार्य द्रविड़ नहीं थे, इसका प्रमाण तो आगे दिया ही जायगा, यहां तो हमें इन्द्र-पूजा की विशेषता पर ही ध्यान देना है । कहा जाता है कि, ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में वरुण का स्तव बहुत ही कम मिलता है और जो कुछ थोड़ा-सा उल्लेख भी है, वह इन्द्र के पीछे या विश्वेदेव के मन्त्रों में है। कौशिक लोग भारत मे ही अन्य देशों में गये, यह तो वे भी स्वयं मानते हैं । तब इन्द्र-पूजा चैल्डिया से आर्यों में न आकर भारतीय कौशिकों के द्वारा ही चैल्डिया में गयी होगी-यह कल्पना अधिक संगत मालूम होती है। विश्वामित्र इन्द्र-पूजा के प्रधान प्रचारक थे और अधिक संभव तो यह है कि इन्द्र के समय में ही उनके बाहुबल से प्रवर्तित उस नवीन अभ्युदय काल में वे इन्द्र के व्यक्तिगत समर्थक रहे हों। कोशिकों के और पौरवों के द्रविड़ होने की कल्पना वेदों में नहीं पायी जाती। हाँ, इसके विरुद्ध पौरवों के आर्य होने का प्रमाण वैदिक मन्त्रों में, प्रचुरता से, मिलता है । ऋग्वेद में दिवोदास पुरु को आर्य कहा गया है और कौशिकों के मूक्तों में आर्यो (भग्नों) की रक्षा के लिए बहुत-सी प्रार्थनायें भी मिलती हैं। वरुण की पूजा से हटकर इन्द्र का अनुयायी होने का प्रमाण भी मिलता है। ईरानी आर्य 'अहुरमज्द' या असुर-वरुण की प्रशंसा करते हुए इन्द्र को पाप-मति कहते हैं। ठीक उसी तरह वरुण की उपासना से हटकर इन्द्र-पूजा की ओर आकृष्ट होते हुए आर्यों का उल्लेख ऋग्वेद के चौथे मण्डल के ४२ वें सूक्त (२.५ और ७ मन्त्रों) में है। ऋषि ने वरुण और इन्द्र का संवाद कराया है और उसमें वरुण के ऊपर इन्द्र को ही प्रधानता दी है। इसी तरह दसवें मण्डल के १२४वे सूक्त (३ और ४ मन्त्रों) में भी वरुण को छोड़कर इन्द्र का आश्रय ग्रहण करने का स्पष्ट उल्लेख है। १. त्वमिमा वार्या पुरु दिवोदासाय सुन्वते । भरद्वाजाय दाशुपे ॥ (ऋक् ६-१६-५) २. वरुण-अहं राजा वरुणो मह्य तान्यसुर्याणि प्रथमा धारयन्तः । ऋतुं सचन्ते वरुणस्य देवा राजामि कृष्टेरुपमस्य वव्र:।। (ऋक् ४-४२-२) इन्द्र -मां नरः स्वत्रा वाजयन्तो मां वृताः समरणे हवन्ते । कृणोम्याजि मधवाहमिन्द्र इमि रेणुमभिभूत्योजाः ।। (ऋक् ४-४२-५) ऋषि-विदुष्टे विश्वा भुवनानि तस्य ता प्र ब्रवीषि वरुणाय वेधः त्वं वृत्राणि शृण्विपे जघन्वान्त्वं वृता अरिणा इन्द्र सिन्धून् ।७। (ऋक् ४-४२-७) ३. शंसामि पित्रे असुराय शेवमयज्ञियाद्यज्ञियं भागमेमि (ऋक् १०-१२४-३) बह्नीः समा अकरमन्तरस्मिन्निन्द्रं वृणानः पितरं जहामि (ऋक १०-१२४-४) प्राचीन आर्यावर्त : १३१