पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२३२

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- ऊपर के प्रमाणों से यह स्पष्ट देखा जाता है कि, इन्द्र के अनुयायी वरुण-पूजा से मुंह मोड़ रहे थे और इसी कारण त्वष्टा के पुत्र वरुणोपासक वृत्र ने असुरों का नेतृत्व ग्रहण किया। यह तो पौराणिक गाथाओं से स्पस्ट है कि, सुरा के लिए ही देवासुर संग्राम हुआ था। देवासुर संग्राम के फलस्वप आर्यावर्त में आंतरिक कलह भीषण हो चला । प्राचीन आर्यों में कुल-शासन-प्रथा प्रचलित थी, जिसमें कुल मुख्य था, और पुरोहितों की प्रधानता रहती ली। छोटे-छोटे आर्यों के दल विभक्त भूखण्डों में अपने परिवार के साथ बसते थे। वरुणोपासना, अपनी प्राचीनता के कारण, इन कुलों में प्रायः प्रचलित थी। देवासुर संग्राम होने के समय ऐसा अनुमान होता हैं कि इन कुलों में से धर्मभीरुओं ने (जो प्राचीन उपासना से विरोध करने का साहस न रखते थे) असुरों का पक्ष ग्रहण किया था। उन लोगों का यह विशिष्ट दल टूट कर सामूहिक रूप से असुर-संप्रदाय संगठित हुआ था। कुल और वंश की तथा आर्य आभिजात्य की मर्यादा का स्थान धार्मिक एकता ने ले लिया था। उन लोगों ने अपनी प्राचीन शासनप्रणाली का अंत करके राजपद को एकनिष्ठ बनाया; किंतु वैदिक आर्यो ने-जो देव कहे जाते थे-अपनी पुरानी प्रथा प्रचलित रखी थी। इसका प्रमाण ऐतरेय ब्राह्मण (३-१४) में मिलता है ।' स्त्री, भूमि और आचार सम्बन्धी वैमनस्य तथा अन्य कारणों से भी परस्पर विरोध होना कभी-कभी अनिवार्य हो उठता है। यदि उसमें धार्मिक उत्तेजना भी मिल गयी, तब तो विरोध में अधिक तीव्रता बढ़ती ही है। आर्यों में गृह-युद्ध होने के, उस समय जहाँ और बहुत से कारण रहे होंगे, उनमें देवासुर संग्राम से हुई हानियों की स्मृति भी कुलों में सजीव रही होगी। कर्मकांड कराने वाले पुरोहितो की भिन्न-भिन्न क्रियाओं को प्रधानता देने की भी प्रतिद्वन्द्विता इसमें अधिक काम कर रही थी - फलस्वरूप दाशराज्ञ-युद्ध हुआ। ऋग्वेद के सातवें मण्डल में इस दाशराज्ञ-युद्ध का उल्लेख है।' इस दाशराज्ञ-युद्ध मे सुदास से अन्य दस राजाओं का . देवासुरा वा एषु लोकेषु समयतन्तत एतस्यां प्राच्या दिश्ययतन्त तांस्ततोऽसुरा अजयंस्ने दक्षिणस्यां दिश्ययत-त तांस्ततोऽसुरा अजयंस्ते प्रतीच्यां दिश्यपतन्त तांस्ततोऽमुरा अजयंस्त उदीच्यां दिश्ययतन्त तांस्ततोऽसुरा' अजयंस्त उदीच्यां प्राच्यां दिश्ययतन्त ते ततो न पगजयन्त सैषा दिगपराजिता तस्मादेतस्यां दिशि यतेत वा यातयेद्वेश्वरो हानृणाकर्ताः, इति ते देवा अब्रुवन्न-राजतया वै नो जपन्ति राजानं करवामहा इति (ऐतरेय ब्राह्मण, तृतीय अध्याय, ३ खण्ड) २. एवेन्नु कं मिन्धुमेभिस्ततारेवेन्नु कं भेदमेभिजघान । एवेन्नु के दाशराज्ञे सुदासं प्रावदिन्द्रो ब्रह्मणा वो वसिष्ठाः ॥ (ऋक् ७-३३-३) १३२: प्रसाद वाङ्मय