पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२३३

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घोर संग्राम हुआ था। इस युद्ध में इन्द्र ने सुदास की रक्षा और सहायता की थी। देवासुर संग्राम में, सरस्वती-तट पर वृत्र के मारे जाने का उल्लेख ऋग्वेद में है और इसीलिए सरस्वती की महिमा में उसे वृत्रघ्नी कहा गया है। किंतु उस वृत्रयुद्ध में कितने ही खंड-युद्ध, इंद्र और वृत्र के अनुयायियों में हुए, जिनमें सुदास के पिता दिवोदास और वृत्र के अनुयायी शंबर भी लड़े थे। इंद्र ने दिवोदास के लिए शंबर के ९९ दुर्ग नष्ट किये थे। और दिवोदास की ही रक्षा के लिए तुर्वशों और यदुओं को भी नष्ट किया था। तुर्वशों और यदुओं के साथ यह युद्ध सरयू तट पर हुआ था।' दिवोदास की तरह सदस्यु के पिता आणुनि कुत्स ने भी शुष्ण और वृत्रानुयायी कुयव से युद्ध किया था। उक्त मन्त्रों से यह प्रमाणित होता है कि यदु, तुर्वशु और पुरु आदि तथा भरतों का प्रमुख आर्य-वंश इन्द्र के पक्ष और विपक्ष में, वृत्र-युद्ध के किस प्रकार लड़ चुके थे। जब इन्द्र की प्रचण्ड शक्ति के द्वारा वृत्र की धार्मिक सत्ता का आर्यावर्त्त के त्रिसप्तक प्रदेश से नाश हुआ और असुरोपासक लोग ईरान तथा उसके पश्चिम में हटने के लिए बाध्य हुए, (परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभिः समय, उयामिवेत्तृष्णजो नाथितासोऽदीधयुर्दाशराज्ञे वृतासः । वसिष्ठस्य स्तुवत इन्द्रो अश्रोदुरुं तृत्सुभ्यो अकृणोदु लोकम् ॥ (ऋक् ७-३३-५) युवां हवन्त उभयास आजिविन्द्रं च वस्वो वरुणं च सातये । यत्र राजाभिर्दशभिनिबाधितं प्र सुदासमावतं तृत्सुभिः सह ॥ (ऋक् ७-८३-६) १. पस्त्वा देवि सरस्वत्युपते धने हिते । इन्द्रं न वृत्रतूर्ये ॥ (ऋक् ६-६१-५) उत स्या नः सरस्वती घोरा हिरण्यवर्तनिः । वृत्रघ्नी वष्टि सुष्टुतिम् ॥ (ऋक ६-६१-७) २. अया वीती परि लव यस्त इंदो मदेष्वा । अवाहनवतीनव ॥ (ऋक ९-६१-१) पुरः सथ इत्याधिये दिवोदासाय शम्बरम् । अध त्यं तुर्वशं यदुम् ॥ (ऋक् ९-६१-२) ३. उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः । इन्द्रो विद्वां अपारयत् । (ऋक् ४-३०-१७) उत त्या सद्य आर्या सरयोरिन्द्र पारतः । अर्णाचित्ररथावधीः । (ऋक् ४-३०-१८) ४. स्वं ह त्यदिन्द्र कुत्समावः शुश्रूषणाणस्तन्वा समर्थे । दासं यष्छष्णं कुयवं न्यस्मा अरन्धय आर्जुनेयाय शिक्षन् ॥ (ऋक् ७-१९-२) त्वं घृष्णो धृषता वीतहव्यं प्रावो विश्वाभिरूतिभिः सुदासम् । प्र पौरुकुत्सि त्रसदस्युभावः क्षेत्रसाता वृत्रहत्येष पूरुम् ॥ (ऋक् ७-१९-३) प्राचीन आर्यावर्त : १३३