स्पर्धमानाः । प्र यदिवो हरिवः स्थातुरुन निरखतां अधमो रोदस्योः-ऋक १-३३-५), तब भी उस युद्ध की कटु-स्मृति और कुल-मुखियों का वध भिन्न-भिन्न आर्यवंशों में विरोध के कारण-स्वरूप विद्यमान था। जैसा कि, हम पहले कह आये हैं, कुछ धार्मिक पुरोहितों के संघर्ष के कारण प्राचीन कुल सम्बन्धी बुराइयों को लेकर आर्यावर्त में जो गृह-युद्ध हुआ-वही दाशराज्ञ-संग्राम है। त्रिसप्तक प्रदेश मे यद्यपि इन्द्र के अनुयायियों की प्रधानता हो चली थी, फिर भी वृत्र-हत्या मे हानि उठाये हुए यदु, तुर्वशु, अनु, द्रुह्य, आदि आर्य-वंश रक्त का प्रतिशोध चाहते थे, वृत्र-युद्ध मे भरत-जाति के प्रमुख दिवोदास ने इन्द्र की सहायता की थी, जिससे आर्यों के भिन्न- भिन्न वंशों को क्षति उठानी पडी। इसी कारण आर्यों की मूल भरत-जाति के नेता दिवोदास के वश से अन्य आर्य-बल द्वेष करने लगे और उक्त काल मे दिवोदास के साहसी तथा उद्दण्ड कुमार सुदाम मे तथा उनके कुलपुरोहित वसिष्ठ से विरोध भी हो गया, जिसके कारण सुदास ने विश्वामित्र को अपना कुल-पुरोहित और प्रधान याजक बनाना चाहा । विश्वामित्र ने अपने तीसरे मण्डल के सूक्तो मे सुदास का यज्ञ कराने की बात कही है। कुछ लोगो का अनुमान है कि, वमिष्ठ की होम-धेनु छीन लेने का यह तात्पर्य है कि, विश्वामित्र ने सुदास आदि राजाओ के कुल की पुरोहिती ले ली थी और यही वसिष्ठ के होम-धेनु हरण करने की कथा का मूल है। सुदास और वसिष्ठ से जो विरोध हुआ था, उसका उल्लेख विष्णुपुराण के चौथे अध्याय मे है।' यही नाम वाल्मीकीय रामायण मे सौदाम के रूप मे मिलता है, जिन्होने वसिष्ठ को शाप देने के लिए जो जल ग्रहण किया था, उसे अपने पैरो पर गिराकर कल्माषपाद की उपाधि ग्रहण की थी। अबरीष और त्रिशंकु की कथाये भी प्रसिद्ध है। इन मबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि, वसिाठ के हाथ से उन दिनो की १. आगताय च वमिठाय निवेदितवान् । स चाचिन्तयत्, अहो ! राज्ञोऽस्य दो शी- ल्यम् । येनैतन्मासमस्माक प्रयच्छति । किमेतद् द्रव्यजातमिति ध्यानपरोऽभूत्, अपश्यच्च तन्मानुषमांसम् । ततश्च क्रोधकलुपीकृतचेता राजानं प्रति शापमुत्ससर्ज, यस्मादभोज्यमस्मद्विधाना तपस्विनाम् अवगच्छन्नपि भवान् मह्य ददाति, तस्मात् तबैवात्र लोलु ग बुद्धिर्भविष्यतीति ॥ (विष्णुपुराण ४.४-२७) ततश्च स कल्माषपादसज्ञामवाप, वमिष्ठगापाच्च षप्ठे काले राक्षमभावमुपेत्याटव्या पर्यटन अनेकयो मानुषानभक्षयत् ॥ (विष्णुपुराण ४-४.३२) २. ततः ऋद्धस्तु मौदामस्तोयं जग्राह' पाणिना। वसिष्ठ शप्तुमारेभे भार्या चैनमवारयत् ॥ राजन्प्रभुर्यतोऽस्माकं वसिप्ठो भगवानृपि । प्रतिशप्तु न शकस्त्वं देवतुल्यं पुरोधसम् ॥ ततः क्रोधमयं तोयं तेजोबलसमन्वितम् । व्यसयत धर्मात्मा नत. पादौ मिपेच च ॥ तेनास्य राज्ञस्तो पादौ तदा १३४: प्रसाद वाङ्मय
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