पुरोहिती छीनी जाकर विश्वामित्र के हाथों जा रही थी। शुनःशेफ वाली कथा से प्रकट है कि वरुणोपासना के सम्बन्ध में ही वसिष्ठ और विश्वामित्र का झगड़ा तीव्र हुआ और वरुण की बलि के लिए लाया गया शुनःशेफ मुक्त हुआ तथा उसमें विश्वामित्र की विजय हुई।' विश्वामित्र की ओर प्राचीन राजकुल अधिक आकृष्ट हुए। विश्वामित्र इन्द्र को अधिक महत्ता देते थे, जैसा कि, उनके तीसरे मण्डल के सूक्तों में अधिक दिखाई देता है । ऐसा मालूम होता है कि, महावीर इन्द्र के अत्यन्त प्रशंसक होने के कारण इन्द्र की सहायता पाने की आशा रखने वाले राज-कुल विश्वामित्र को ही अधिक मानने लगे। इन्द्र की सहायता उस काल के वृत्र-युद्धों के बाद अत्यन्त आवश्यक हो गयी थी; क्योंकि वही उस समय प्रधान राज-शक्ति के केन्द्र थे। दूसरी ओर वसिष्ठ के मूक्तों से उनकी धार्मिक विधियों में संदिग्धता प्रमाणित होती है । ऐसा जान पड़ता है कि वे पुरोहिती के लिए अत्यन्त चंचल चित्त हो रहे थे।, इन्द्र की प्रशंसा में कहे गये उनके बहुन मे सूक्त हैं; किंतु वरुण के लिए भी कम नहीं है। कहीं-वहीं तो उन्होने अपनी द्विविधाजनक मनोवृत्ति से उत्पन्न अनेक किंवदन्तियों तथा जनरवों से अपनी व्याकुलता का भी स्पष्ट उल्लेख किया है, जिसमें उन्होने - अपने को झूठे देवों की उपामना करने वाला; यातुधान, मायावी इत्यादि कहने वालों से - अपनी रक्षा करने की प्रार्थना की है।' उस समय मायावी वरुण के समर्थक होने के कारण इन्द्र के अनुयायियों के द्वारा वसिाठ के लिए ऐसी बाते कही जाती थीं और विश्वामित्र इन्द्र की सहकारिता के कारण अधिक प्रशंसित होते थे। वमिष्ठ कभी सुदास के विरोध के कारण अपने कल्माषतां गतो। तदाप्रभृति राजासी मौदास: सुमहायशाः (वाल्मीकीय रामायण, उत्तरकांड ६५ मर्ग, २९-३२) १. वसिष्ठ विश्वामित्र संघर्ष, शुनःशेफ-अंबरीष की कथा के सदर्भ में वाल्मीकीय रामायण के बालकांड के ५३-६० सर्ग अवलोकनीय । (सं०) २. युध्मस्य ते वृषभस्य स्वराज उग्रस्य यूनः स्थविरस्य धृष्वे । अजूर्यतो वज्रिणो वीर्याणीन्द्र श्रुतस्य महतो महानि ॥ (ऋक् ३-४६-१) महीं अशि महिष वृष्ण्येभिर्धनस्पृदुग्र महमानो अन्यान् । एको विश्वस्य भुवनस्य राजा स योधया च क्षयया च जनान् ।। (ऋक् ३-४६-२) ३. यदि वाहमनृतदेव आस मोधं वा देवां अप्यूहे अग्ने । किमस्मभ्यं जातवेदो हृणीषे द्रोघवाचस्ते निऋथं सचन्ताम् ।। (ऋक् ७-१०४-१४) यो मायातुं यातुधानेत्याह यो वा रक्षाः शुचिरस्मीत्याह । इन्द्रस्तं हन्तु महता वधेन विश्वस्य जन्तोरधमस्पदीष्ट ॥ (ऋक् ७-१०४-१६) प्राचीन आर्यावर्त : १३५
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२३५
दिखावट