प्राचीन घराने की मान-मर्यादा की रक्षा के लिए चल-चित्त होकर इन्द्र का समर्थन करते हैं और कभी वरुण से अपने प्राचीन धर्म से विचलित होने के कारण, अपराधों को क्षमा चाहते है ।' कभी तो वरुण से अपनी पुरानी सहकारिता का उल्लेख करते हुए उनसे कृपा की प्रार्थना करते है और कभी इंद्र की प्रशंसा भी करते देखे जाते हैं। वसिष्ठ के समय मे ही अग्नि की एक उपासना पद्धति प्रचलित हुई थी, जो नव-जात थी और जिसे 'इन्द्राग्नी' कहते थे। यह वरुण-पूजा से अवश्य ही भिन्न प्रकार की उपासना रही होगी। किन्तु विश्वामित्र, वरुण के उतने प्रशंसक न होने के कारण, इन्द्र-पक्ष के राज-कुलों के प्रधान पुरोधा हो गये और भरतवंश के प्रमुख राजकुमार सुदास ने वसिष्ठ से विरोध करके जब विश्वामित्र को अपना प्रधान याजक बनाया, तब तो उनकी महत्ता अन्य पुरोहित कुलों के डाह के लिए यथेष्ट कारण हुई । सुदास की उच्छं खला के कारण या और किसी कारण से वसिष्ठ ने उस यज्ञ में भाग नही लिया। ऐसा अनुमान है कि वह सुदास का अश्वमेध-यज्ञ था, जिसे विश्वामित्र ने कराया। अश्वमेध-यज्ञ इन्द्र के ही प्रीत्यर्थ किया जाता था और वह अश्वमेध-यज्ञ, हरिवंश के अनुसार, जनमेजय के द्वारा वर्जित किया गया। अश्वमेध राज-सत्ता-की प्रधानता का द्योतक एक प्राचीन आर्य-अनुष्ठान था। इन्द्र के अनुयायी भरत-वंशीय १. किमाग आस वरुण ज्येष्ठं यत्स्तोतार जिघांमसि सखायम् । प्र तन्मे वोचो दूळम स्वधावोऽव त्वानेना नममा तुर इयाम् ॥ (ऋक् ७-८५-४) क्व त्यानि नौ सव्या बभूवुः सचावहे यदवृकं पुरा चित् । वृहन्तं मानं वरुण स्वधावः सहस्र जगमा गृहं ते ॥ (ऋक् ७-८८-५) यत्कि चेदं वरुण देव्ये जनेऽभिद्रोहं मनुष्याश्चरामसि । अचित्ती यत्तव धर्मा युयोपिम मा नस्तस्मादेनमो देव रीरिष. ।। (ऋक् ७-८९-५) २. शुचि नु स्तोमं नवजातमद्येन्द्राग्नी वृत्रहणा जुषथाम् । उभा हि वां सुहवा जोहवीमि ता वाजं सद्य उशते धेष्ठा ॥ (ऋक् ७-६३-१) ३. महां ऋषिदेवजा देवजूतोऽस्तम्नासिन्धुमर्णवं नृचक्षाः । विश्वामित्रो यदवहत्सुदासमप्रियायत कुशिकेभिरिन्द्रः ॥ (ऋक ३-५३-९) ह्सा इव कृणुथ श्लोकमद्रिभिमदन्तो गीभिरध्वरे सुते सचा । देवेभिविप्रा ऋषयो नृचक्षसो वि पिबंध्वं कुशिकाः सौम्यं मधु ॥ (ऋक् ३-५३-१०) उप प्रेत कुशिकाश्चेतयध्वमश्वं राये : मुञ्चता सुदासः । राजा वृत्रं जङ्घनत्प्रागपागुदगथा यजाते वर आ पृथिव्याः ।। (ऋक् ६-५३-११) य इमे रोदसी उभे अहमिन्द्रमतुष्टवम् । विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मदं भारतं जनम् ।। (ऋक् ३-५३-१२) १३६ :प्रसाद वाङ्मय
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२३६
दिखावट