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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२३७

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सातवें मंडल कहा है कि सुदास ने जब उसका आरम्भ किया, तब वरुणोपासना से प्रेम रखने वाले, अन्य आर्य राजकुलों के साथ घनिष्ठता रखने के कारण, वसिष्ठ का यज्ञ में याजद पद को अस्वीकार कर देना बहुत संभव है । और वह ऐसा अवसर था कि इन्द्र की सहायता करने वाले भरत-प्रमुख राजन्य के विरुद्ध अन्य प्रतिस्पर्धी राजकुल सहज ही उत्तेजित हो सकते थे। जिस सरयू-तट के युद्ध में यदु-तुर्वशों के नेता अर्ण और चित्ररथ मारे गये थे, उसकी स्मृति अभी मलिन नहीं हुई थी। वसिष्ठ से सुदास का झगड़ा भी हो गया था। इसी समय सुदास ने अश्वमेध का भी अनुष्ठान किया। इससे बढ़कर दाशराज्ञ-युद्ध के लिए और कौन अवसर आता ? ऋग्वेद के तीसरे मंडल के ५३ वें सूक्त के जिन मंत्रों की बातें कही गई हैं, वे इसके साक्षी हैं । 'अश्वं राये प्र मुञ्चता सुदास.' इसी घटना का संकेत करता है। विश्वामित्र के कहे हुए इसी सूक्त के २०, २१, २२ और २६ मंत्र वसिष्ठ के अनुयायी लोगों में वजित और अश्राव्य हैं । १०० वें सूक्त में जो मंत्र, अपने ऊपर किये गये आक्षेपों से सुरक्षित होने के लिए वसिष्ठ ने प्रार्थना रूप से कहे हैं, वे भी अधिकतर विश्वामित्र की ही ओर संकेत करते हैं। तीसरे मंडल के ५३ वें सूक्त में तो विश्वामित्र ने यहां तक गर्दभं पुरो अश्वान्नयन्ति' (३१५३।२३)। वसिष्ठ के बांधे जाने, छूटने और उनके पुत्रों के मारे जाने की भी कथा प्रसिद्ध है। उक्त अश्वमेध की पुरोहिती को लेकर वसिष्ठ का जो अपमान हुआ, उससे भी इस युद्ध को अधिक सहायता मिली। एक प्रकार से यह अश्वमेध रण-निमंत्रण था। फलतः यमुना से लेकर शुतुद्रि (शतद्रु) और परुष्णी के तटों पर कई युद्ध हुए, जिनमें सुदास एक ओर और अन्य दस राजा एक ओर होकर लड़े--इसी का नाम दाशरज्ञ युद्ध है। इस दाशराज्ञ-युद्ध के लड़ने वाले दस राजा कौन थे, इस सम्बन्ध में कई मत हैं । दाशराज्ञ-युद्ध के संबंध में रंगोजिन का मत है कि-तृस्सु प्रधान आर्य, आक्र- मणकारी जाति के लोग हैं, जिन्होंने पंजाब पर पहले आक्रमण किया था। द्रविड़ जाति के पुरु लोग अन्य राजाओं के साथ मिलकर उस आक्रमण को रोकने के लिए लड़ते वे और इस युद्ध में उनके प्रधान पुरु थे। भरत जाति भारत की प्राचीन रहने वाली अनार्य जाति थी, जिसे विश्वामित्र ने शुद्ध किया था। अनु, स्पष्ट ही कोल जाति के थे। इन लोगों ने पुरु-जाति के प्रमुख कुत्स के नेतृत्व में सुदास तृत्सु से युद्ध किया । सी० वी० वैद्य महोदय का मत है कि, जो आर्य पंजाब में आकर पहले बसे थे, सूर्यवंश के थे। भरत सूर्यवंशी है और प्रथम आने वाले वे ही हैं। सिंधू नदी से सरयू तक ने फैल गये। मैकडानल के अनुसार वह अयोध्यावाली सरयू है। वे सूर्यवंशी खैबर की घाटी से पंजाब में आये, पीछे आने वाली दूसरी टोली के आर्य चंद्रवंशी थे, जो गंगा की दरी होते हुए चित्राल गिरि-पथ से आये । सरस्वती-तट पर उन्होंने राज्य स्थापित किया; इसका प्रमाण- प्राचीन आर्यावर्त : १३७