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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२३८

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1 . भाषाशास्त्र की दृष्टि से प्रियर्सन और हार्नले के अनुसार-वैद्यजी ने दिया है कि यही चंद्रवंशी आयं धीरे-धीरे दक्षिण में फैले, जिनकी भाषा अवधी राजधानी और पंजाबी से भिन्न है । वैद्यजी का यह भी कहना है कि प्रयाग में चंद्रवंशियों के आदि पुरूरवा की राजधानी बतामा पुराणों का भ्रम है, ये लोग गिलगिट-चित्राल के पथ से आकर पहले-पहल अम्बाला, सरहिद स्थानों में बसे । फिर ये दक्षिण की ओर फैले । पहले आये हुए सूर्यवंशी भरतों का पीछे आये हुए चन्द्रवंशी यदु, तुर्वशु आदि से युद्ध हुआ। पदु, तुवंशु पूर्व में सरयू तक बस चुके थे, जिनसे भरतों का युद्ध हुआ। अमेरिका की पांच जातियों के युद्ध का उदाहरण देकर वैद्यजी ने यह प्रमाणित करना चाहा है कि इन यदु, तुर्वशु, अनु, द्रुह्य और पुरु इत्यादि नवागत चन्द्रवंशी आर्यों के साथ पांच अनार्य (पक्थ. भलान, भनन्तालिन, विषाणिन् और शिव) जातियों का गुट्ट' भरतवंशी राजा के विरुद्ध संघटित हुआ; अर्थात् वह दाशराज्ञ-युद्ध पहले के आये हुए सूर्यवंशी और पीछे के आये हुए चन्द्रवंशी आर्यों का भूमि-लिप्सा के लिए पारस्परिक युद्ध हुआ, जिसमें सूर्यवंशी भरतों की ही विजय रही। संक्षेप में रंगोजिन इत्यादि पाश्चात्यों के मत में दाशराज्ञ-युद्ध अनार्य भारतीयों पर विदेशी आर्यों का आक्रमण है और वैद्यजी ने उसमें इतना संशोधन और किया है कि, युद्ध मे कुछ अनार्य भले ही सम्मिलित रहे हों; कितु प्रधानतः उसमें आक्रमणकारी और आक्रांत, दोनों ही आर्य थे। इस कल्पना के द्वारा वैद्यजी ने सूर्य-वंश और चन्द्र-वंश के पौराणिक आख्यान की संगति लगा ली है। इन दोनों समीक्षकों के मत के मूल में पाश्चात्य शोधकों की वही मनोवृत्ति या विचारधारा है, जो भारत को आरंभ में अनार्य देश मानक उस पर विदेशी आर्यों का आक्रमण करना युक्ति-युक्त समझती है, जिमसे यह प्रमाणित हो जाय कि आर्य लोग यहां के अभिजन नहीं, प्रत्युत विदेशी हैं। प्राचीन आर्यावर्त्त त्रिसप्तक प्रदेश में सीमित था। सरस्वती, सिंधु और गंगा की सहायक नदियों से सजला-सफला भूमि वैदिक काल के आर्यावर्त की सीमा के भीतर मानी जाती थी। कितु, सरस्वती से मेरा तात्पर्य पंजाब की सरस्वती का सरस्वती से नहीं है । अफगानिस्तान की 'हिलमंद नदी ऋग्वेद की सप्तक सरस्वती है। वर्तमान भारत के मानचित्र को सामने रखकर ऋग्वेद काल की ऐतिहासिक आलोचना असंभव है। उस समय की ऐतिहासिक घटनाओं को समझने के लिए ऊपर कहे हुए त्रिसप्तक प्रदेश के १. आ पक्थासो भलानसो भन्तालिनासो विषाणिनः शिवासः । मा योऽनयत्सपमा आर्यस्य गव्या तृत्सुम्यो अजगन्युधा नृन् ॥ (ऋक् ७-१८-७) १३८: प्रसाद वाङ्मय