पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२३९

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आर्यावर्त (जो हिमालय और विध्य के मध्य में था) को आँखों के सामने रखना होगा.। तब यह कहना व्यर्थ है कि, आर्य लोग कही दूसरे स्थान से आये थे; क्योंकि खंबर की घाटी तब भारतवर्ष की उत्तर-पश्चिम की सीमा नही थी। ऐसा ममझ लेने पर दाशराज्ञ युद्ध को विदेशी आर्यों और भारतीय द्रविड़ों का युद्ध न कहकर आर्यावर्त के आर्यों का ही गृह-युद्ध कहना संगत होगा। दाशराज्ञ के सम्बन्ध में जिस त्रसद्दस्यु का उल्लेख हुआ है, वह सुवास्तु प्रदेश का था, जिसे अब स्वात कहा जाता है। इसी सुवास्तु प्रदेश को सत्यव्रत सामश्रमी ने आर्यो का मूल स्थान बताया है। 'तुग्व' सुवास्तु प्रदेश का एक प्रसिद्ध तीर्थ माना जाता था। रंगोजिन का यह कहना असंगत है कि पुरु लोग पश्चिम के रहने वाले द्रविड़ जाति के थे। उन लोगों की अध्यक्षता मे अन्य राजाओं ने तुत्सुओ से युद्ध किया; क्योकि पौरवों का मरस्वती के दोनों तटों पर रहना ऋग्वेद से प्रमाणित है।' इस मत्र मे पुरु जाति का उल्लेख 'पूरवः' बहुवचन से है। ऋग्वेद काल की सरस्वती (हिलमंद) के दोनों तटों पर इनका राज्य था। ये पुरु लोग वृत्रयुद्ध मे दिवोदाम और इन्द्र के सहकारी थे। उस युद्ध में पुरुशा र शुष्ण से और दिवोदास शंबर से लडे थे। सहस्यु का स्वात की घाटी तक अधिकार होने का प्रमाण भी हम ऊपर दे जाये है। तब यदि यह माना जाय कि, वर्तमान हिलमंद और स्वात प्रदेश की रहने वाली पुरु जाति भारत पर आक्रमण करती है, तो रंगोजिन के अनुमार द्रविड पौरवों का पंजाब के आर्यो पर उलटा आक्रमण हो जाता है। वास्तव ने तो इन लोगों की भ्रांत कल्पना यह है कि, विदेशी आर्यो ने भारतीय द्रविडों पर आक्रमण किया। जिन तृत्सुओं को रंगो ने आक्रमणकारी आर्य बताया है, वे तृत्सु आर्य-सैनिक नही; किंतु भरतों के पुरोहित थे और इसीलिए वसिष्ठ को प्रधान या आदि नृत्सु भी कहा गया है।' वैद्यजी का कहना है कि, चद्रवंशी आर्य अर्थात् पुरु, तुर्वशु, अनु और द्रुह्य, आदि गंगा की घाटी से होते हुए कुरुक्षेत्र में आये और यहां पर बसने और राज्य - १. उभे यत्ते महिना शुभ्रे अन्धसी अधिक्षिपन्ति पूरवः । सा नो. बोध्यवित्री मरुत्सग्वा चोद राघो मघोनाम् ।। (ऋक ७-९६-२) २ त्वं कुत्स शुष्णहत्येप्वाविथारन्धयोऽतिथिग्वाय शम्बरम् । महान्तं चिदर्बुदं नि क्रमीः पदा सनादेव दस्युहत्याय जज्ञिषे ।। (ऋक् १-५१-६) ३ दण्डाइवेद्गोअजनास आमन्परिच्छिन्ना भरता अर्भकासः । अभवच्च पुरएता वसिष्ठ आदित्तृत्सूनां विशो अप्रथन्त ॥ (ऋक ७-३३-६) किमाग आस वरुण ज्येष्टं यत्स्तोतारं जिघांससि सखायम् । प्र तन्मे वोचो दूळभ स्वधावोऽव त्वानेना नमसा तुर इयाम् ॥ (ऋक् ७-८६-४) प्राचीन आर्यावर्त : १३९