आर्य-मानवों का अफ्रीकी-अभियान दक्षिणी और उत्तरी अफ्रीका के निवासियो के वर्ण की भिन्नता प्रमाणित करती है। इस महाजाति की प्रागैतिहासिक वास्तविकताओं को केवल इस कारण से नकारा नही जा सकता कि उसके वैसे पुरातन अवशेषों का अभाव है। उस मिधु सभ्यता के अति दूर-पूर्वजों अथवा आर्य-अग्रजन्माओं की प्रागैतिहासिक वस्तुता कहां गई ? इस प्रश्न के साथ ही हमें उन प्रलय संबंधिनी अनुश्रुतियों को नहीं भूलना चाहिये जो सभी पश्चिमीय देशों में आर्य-मूल वाली जाति-शाखाओ के स्मृति-संस्कारो मे रक्षित चली आ रही है । उम महाजाति का जब -कामायनी के अनुसार- 'गया सभी कुछ' तब वैमी प्रलयाधीन हो चुकी मानव समष्टि के आदि-कालीन भौतिक अवशेषों का मिलना क्या दुष्कर न होगा? वर तो अपनी इयत्ता को- - 'बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत'- (स्कन्दगुप्त-पचम अक, पचम दृश्य) स्थापित किये। मन्दगुप्त के मी गीत मे दम महाजानि इस पश्चिमीय अभियान का भी मंरत स्पष्ट है जहाँ कहा गया है-'अरुण केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पय मे हम बढे अभीत'। मनु ने मानवी मृष्टि अर्थात् मानव-जाति के आर्य भाग की वैवस्वती संतान धारा (ऐदवाकु अथवा मिश्र 1 हिक्कोस) के वरुण-पथ किवा असीरिया, बेबिलोनिया, ईजिप्ट आदि की ओर जाने का संकेत एक प्रागैतिहामिक सत्य है। हिमालय के Shivalik man का Rama Picthus राज गहन अनुसंधान का विषय बनता जा रहा है। ईजिप्ट की प्राचीन अनुश्रुति है कि उनके पूर्वज उम पुण्ट देश से आये थे जहाँ बाघ, चीते, बंदर और लगूर बहुतायत से होते (Historians History of the world) है। यह पुण्ट या पुण्य देश प्राचीन आर्य-वास ही हो सकता है। शिवालिक पहाड़ियो मे ये सभी जन्तु बहुतायत होते हैं। अनुश्रुति है कि केमरीनन्दन कपिार हनुमान का जन्म मेम पर हुआ। मेरु-प्रमंग मे केमर-पर्वत का उल्लेख विष्णुपुराण मे हुआ है। मंभव है उनके पिता का केसरी नाम मेरुवर्ती केसर-पर्वत मे सम्बन्धित और स्थान-वाची हो। आर्यो ने ही अधों को आरोहणोपयोगी और एक पालतू पशु बनाया : और, मित्र मे भी अश्वो का प्रचार आर्यों के द्वारा ही हुआ। फिर, भविष्य पुराण का यह क्थन - -'मरस्वत्याज्ञया कण्वो मिश्रदेशमुपाययो (४-२१-१६)' काल्पनिक गाथा नही प्रत्युत एक महत्त्व के ऐतिहासिक तथ्य का प्रकटीकरण है। इम निबन्ध में वर्तमान हरवती को वैदिक सरस्वती कहा गया है जिसके परिसर से काण्व समुदाय मिश्र को गया होगा। काण्वों की मूल-भूमि का वहां 'पूर्व के पुण्य देश' के रूप में स्मृति-शेष रहना फिर स्वाभाविक है। आर्यों की १५६ : प्रसाद वाङ्मय
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