सादृश्य और मान्यताओं का माश्य भी स्पष्ट है। यहाँ के प्रमुख धर्म-योजक 'मनेयो' का नाम भी कुछ ऐसा ही सादृश्य रखता है । एक देवता सत्ती का भी उल्लेख पाया जाता है जो वहाँ एक कबीले से संबंधित है। Flinders Petric ने सत्ती को वहां लाये गये विदेशीय देवताओ की कोटि मे रखा है -(Encyc. of Rel and Ethics, Vol 5, Page 250)। वह देवराज्ञी मानी जाती थी। मेना मे मेनका किंवा उसकी आत्मजा पार्वती-धारा के समानातर सती-धारा का भी वहां विद्यमान रहना सभव है, भले ही सती एक छोटे समूह द्वारा ही आराधित रही हो। यदि उसके देवराज्ञी-भाव को ही प्रमुख माना जाय तो शची का परिवर्तित रूप भी सनी हो सकता है : किंतु, प्रत्येक दशा मे इस देवता की आर्यस्रोतृता स्पष्ट है । इधर मध्य-प्रदेश के प्रायः ६००-७०० के वर्गमील के क्षेत्र मे बिखरी अनेक शैल-गुहाये और उनकी प्रस्तर-भित्तियो पर बने चित्र आज शोध करने वालों को अपनी रेखाओ में कुछ प्रागैतिहारिक कथा बता रहे है । शीत, आतप और वर्षा से रक्षा करने वाली गुहा अनन-प्रभु की गोद कही गयी है- थी अनंत की गोद महा विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय उनमें मनु ने स्थान बनाया सदर स्वच्छ और वरणीय फिर, उमकी संतति मानव मे अपने गहा-निकेतों को निरतर परिष्कृत और सज्जित करते जाने की प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक है । गुहामानव निरा जंगली नही रहा, उसकी सभ्यता के मतत विकास का प्रमाण सवेदनों के समस्वर विबो को संजोने वाले भावबोध की अभिव्यक्ति की चेष्टा मे उरेही गयी ऐमी आकृतियो मे रक्षित है। वैसे ही कुछ उरेही आकृतियां मध्यप्रदेश के पहाडगढ गुहा मे पाई गई है। वहीं अकित एक ऐसा पशु जीवशास्त्रियों के सम्मुख पहेली बना है जिसकी आधी देह मृग की और आधी वृषभ की है। उम चित्र को बनाने वाले ने पृथ्वी पर संनरिन किसी ऐसे प्राणी को निश्चय देखा • एक अन्य चित्र में रथ का अकन है जो अपने अगली पहियों के छोटे होने के कारण अवश्य ही किसी तीव्रगामी और युद्धोपयोगी रथ की प्रतिच्छवि है। रेडियोकार्बन परीक्षण के द्वारा ये अंकन पच्चीस हजार वर्ष पुराने सिद्ध हुए है। तब, आर्य सभ्यता का इस भूमि पर इसके पर्याप्त पूर्व से विकास रहा होगा। क्योकि यह निर्विवाद है कि घोड़ों का बाहन के रूप मे प्रयोग आर्यों द्वारा ही आरम्भ किया गया है । पश्चिम मे उस ईजिप्ट तक- जहाँ का प्रथम शामक मेना था- दम पशु का आर्यों के द्वारा ले जाया जाना सिद्ध हो चुका है। ऋगेद मे अश्व-पर्याय के रूप मे भी मेना का उल्लेख है। सुना होगा १५८:प्रसाद वाङ्मय
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