सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फिर, इस भूमि पर पच्चीस हजार वर्ष अथवा इससे पहले या बाद किसी अनार्य जाति के निवास और उस जाति पर कही बाहर से आकर आर्यों का आक्रमण मानना कथमपि संगत नही । सुतराम् इस निबन्ध में प्राचीन आर्य-वास कहीं अन्यत्र नही माना गया, प्रत्युत स्कंदगुप्त नाटक के एक गीत में भी इस निबंध के लेखक द्वारा कहा गया है-'कही से हम आये थे नहीं, हमारी जन्मभूमि थी यही' (पंचम अंक, पंचम दृश्य)। श्रेय अथवा सत्यज्ञान ही संकल्पात्मक अनुभूति के रूप में कवि में उपस्थित होता है जिसकी अभिव्यक्ति ही काव्य है (द्रष्टव्य -काव्य और कला)। और काव्य केवल छंदों में ही नही बमता : दृष्ट किंवा अनुभूतसत्य का कवन अर्थात् संक्षेपण और उसका शब्दात्मक संप्रेषण या उसकी अभिव्यक्ति अपने किसी भी रूप में काव्य पदावाच्य ही है। आर्य-वास संबंधिनी इस स्थापना के पक्ष में अनेक साक्ष्यों में से यह एक उदाहरण के रूप में है । हिमानीपाद 'शिवालिक' के निवासी मानव की पश्चिम यात्रा असारया-बेबिलोनिया होकर ही अफ्रीका तक हुई होगी और उस परंपरा में क्षत्रियों (खत्तो) कुशिकों (कुसाइटम) और मैत्रायणों (मित्तानियन्स) के परवर्ती अभियान रहे होंगे जिनका उल्लेख इस निबध मे सप्रमाण आया है । आज किसी अज्ञात संकोचवश आर्य के स्थान पर 'शिवालिक मानव' कहकर उनके जिस पश्चिमाभिमुखी अभियान को Rama Picthus की संज्ञा दी जा रही है--उस अभियान के अध्ययन के पर्याप्त संकेत इस निबंध में हैं । आवश्यकता केवल थोपी गई पश्चिमीय मान्यताओं की धूल झोड़कर एक निरपेक्ष अन्वेषण की है। 'कामायनी' में हिमालय के भौतिक आयनन की जो भावात्मक उपमा -'मानों तुंग तरंग विश्व की, हिमगिरि की वह गुढर उठान"- दी गई है उसकी लाक्षणिकता भी इस प्रसंग मे ध्यातव्य होगी। अपने प्राचीन आर्य-वाम से निकल कर इस महाप्राण जाति ने मध्य- एशिया-- श्वेत रूस से स्पेन पर्यत पश्चिम में और उत्तर में स्कैडिनेविया से दक्षिण में उत्तरी अफ्रीका तक अपनी मानवता वा विस्तार किया है। चंद्रगुप्त में कार्नेलिया के उम क्थन की अपने सामान्यार्थ के अतिरिक्त कुछ विशेष अर्थवत्ता है, जहां यह कहती है--'अन्य देश मनुष्यो की जन्मभूमि है, यह भारत मानवता की जन्मभूमि है'. (तृतीय अंक-द्वितीय दृश्य)। कदाचित् मनुष्य और मानव में व्यंजना की विलक्षणता से कुछ अर्थमंद भी है । विभिन्न-भू भागों की कृष्ण-पीत जातियां मनुष्य तो हैं किंतु मानव नहीं। उन्हें मानवीय संस्कार अभी वांछित हैं- वे मानवीकरण के योग्य है : . प्राचीन आर्यावर्त : १५९