वैक्रमाद वयस व्यक्तित्त्व पक्ष पारिवारिक पक्ष साहित्य अपने भिन्न कृतियों के कलेवर में-कृतित्त्व के चिन्तन और विचार की दृष्टि से-एक ही महासंहिता है : जिसके अन्तराल मे पूर्वापर एवम् स्कारिक अभिन्न संबंध अनुस्यूत है । उसी पाठशाला मे आठ वर्ष की अवस्था मे रचित छन्द-हारे सुरेस, रमेस, धनेस, गनेसह सेस न पावत पारे, पारे हे कोटिक पातकी पुज 'कला- धर' ताहि छिनो लिखि तारे, तारेन की गिनती सम नाहिं सु जेने तरे प्रभु पापी बिचारे, चारे चल न विरचिहू के जो दयालु ह्र शंकर नेकु निहार।' इसी के समस्वर- 'चित्राधार'-'तुव चरनन मे लोटि जगत क सीस पांव दै रहि हो-' किन्तु, उपास्य-उपासक का भेद विगलमोन्मुख है और एक दिन वे कह देते है I feel I doct(-)= require it now 'पूर्वपक्षतया येन विश्वमाभास्य अभेदोत्तर पक्षान्तं नीयते तंस्तुमः शिवम् ॥' अभेद सिद्धि मे घोरा- वस्था से अघोरावस्था के बिन्दु पर पहुचने पर ही 'तुम सब हो मेरे अवयव जिसमे कुछ नही कमी है' की दशा कामायनी मे आई क्वीस कालेजिएट स्कूल में। ६ के बाद पारिवारिक-विग्रह-वश १९०२ मे स्कूल छूटा। रामगोपाल भेदतः । कक्षा १७२: प्रसाद वाङ्मय
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