पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२८०

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जहां तक सीधा राजमार्ग और सम्पत्ति वाली बस्तियां मिलीं-बनारस के पूर्व तक, गोरी की फौजें धावा मार रही थीं। इस वात्या से बचते हुए वे अन्तदीय जन यवन अभियानों से प्रभावित क्षेत्र और पप से दूर पूर्व मे बसना चाहते थे और वैसी भूमि भी वांछित रही जहाँ से व्यवसाय हो सके । विलक्षणतः, नियति ने उन्हें उसी स्थल-बिन्दु पर रोक लिया जहाँ तब से प्रायः साढ़े सात सौ वर्ष पूर्व अपने पिता कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य के अवसान के बाद विमाता अनन्त देवी और हूणों की दुरभिसन्धि से खिन्न-स्कन्दगुप्त ने पृथ्वी पर सोकर राते बिताई थी : और, जहाँ उसने हूणों से मातृभूमि के उद्धार का संकल्प लिया था। 'भितरी' के स्तम्भ लेख की पंक्तियां हैं - 'पितरि दिविमुपते विलुप्तां वंश लक्ष्मी विचलित कुल लक्ष्मी स्तंभनायोद्यतेन""हूणर्यस्य समागतस्य समरे दोा घरा कम्पिता" भीमावर्नकरस्य शत्रुष शरा।" और जहाँ 'श्रोत्रेषुगाग ध्वनि' पड़ती है वहाँ स्कन्दगुप्त ने शाङ्गपाणि की प्रतिमा स्थापित कर गुप्त-शासन को सुप्रतिष्ठित करते अपने महत् अभियान को अग्रसर किया। उसी 'संदपुर भितरी' की भूमि पर अपनी विवलित कुल-लक्ष्मी के प्रतिष्ठापनार्थ हमारे पूर्वजो ने कन्नौज से आकर प्राय तीन शताब्दियो तक अधिवास किया। इस 'भितरी' को अंग्रेजी के लेखन-वाचन ने 'भिटारी' बना दिया। और शोध- जगत मे उसका 'भिटारी' वाचन रूढ हो गया। 'स्कन्दगुप्त' नाटक की भूमिका मे 'भिटारी' का प्रयोग इसीलिए हुआ है कि समकालीन 'अंग्रेजीदी' इस नामसंज्ञा के शब्द-व्यवहार को अपने ढग से ही ग्रहण करे । नाम व्यवहार के अनावश्यक प्रपंच मे मूलवस्तु अर्थात वहां के स्तम्भ-लेख का प्रसंग उलझे नही अन्यथा पूज्य पिताश्री भितरी को भिटारी क्यो कहते ? यह कथमपि नहीं कहा जा सकेगा कि वह भितरी उन्हे अज्ञात था जहां पूर्व पुरुषो ने शतियाँ विताइ। वहाँ के कतिपय लोगों से हमारे यहां गाढ़ सम्पर्क रहा और अधुनापि है। मेरे एक बन्धु ने कहा कि उसका प्रकृत नाम 'भीमोत्तरी' हे किन्तु स्तम्भ-लेख की पन्द्रहवी-सोलहवी पंक्ति मे 'भीमावर्तकरस्य शत्रुषशग' भी इम मन्दर्भ में विचार्थ है। शाङ्गपाणि की प्रतिमा भी वहाँ प्राप्त हुई थी। अस्तु, हमारे पूर्वजो को वह स्थान भी मोलहवी शती मे छोडना पड़ा जिसका मौलिक पूर्व-नाम अव शोध का विषय बना है । अवश्य ही गुप्तकाल मे उस स्थान का नाम अन्य रहा होगा जहाँ स्कन्दगुप्त ने शाहपाणि की स्थापना की थी, कही म्कन्दपुर की अपभ्रष्ट मंज्ञा तो सैदपुर नही ? सम्भव है तब उसकी स्कन्दपुर की आन्या बन गई हो जिसे मैयद-पठान प्रभुता ने मैरपुर मे रूपान्तरित कर दिया हो, जैसे गाधिपुर गाजीपुर हो गया। यदि ऐमा नही है तो भी स्कन्दगुप्त के महान चरित्र से जुड़े इस पूत-स्थल का स्कन्दपुर के रूप मे अब व्यवहार करना-सांस्कृतिक पुनर्जागरण से संवादित और गमीचीन होगा। मुगल-पठान सघर्ष वाले शेरशाही १८० : प्रसाद वाङ्मय