होगा। किन्तु, शहर बनारस के उस कोतवाल के, अतिचार के प्रतिकार मे सहायक होने का कोई प्रतिदान पूर्वजो को स्वीकार न हुआ और वह फरमान कागजो के अम्बार में पड़ा रहा जिसका उल्लेख पूज्य पिताश्री ने किया था। शहर कोतवाल निकाह की बेसब्री मे गहाँ महफिल जमाए बैठा था वह स्थान आज भी पुरानी अदालत कहा जाता है । औरंगजेब उसकी घेरेबन्दी कराके एकाकी भीतर घुसा। कन्या चीख रही थी, कोतवाल नशे में धुत्त था। उसके सिपाही औरंगजेब को रोक नही पाए न पहचान सके । कोतवाल ने गरज कर कहा 'कौन मरदूद आया है ? औरगजेब ने कमरबन्द से जब अपने शाही सिरपेच को अमामे पर लगाया और जफील दो-आदमियो को भीतर आने का संकेत किया- तव कोतवाल की समझ मे आया कि यह 'मरदूद' कोन है। जो लोग महफिल से भागे उनमे से कुछ मारे गए। चौक वाली सडक पर की दो करे और संघनी साहु की दूकान के सामने मसजिद के कोने की एक कब उसी घटना की शहादत आज भी दे रही है । कोतवाल को उमने कुन्दीगर टोला की गली के मोड पर दीवाल मे चुनवा दिया। उस दीवाल के एक छोटे-से ताखे मे उस कोतवाल की स्मृति आज शहीद बनकर पुजवाती है, जिसे उस 'मरदूद' औरगजब ने चुनवा कर ब्राह्मण-कन्या का उद्धार किया -और उसके विवाह के लिए प्रचुर धन भी दिया था। घोहट्टा के पास की सराय मे उसने खाना खिलाने वाली भठियारिन को भी धन दिया कि उस सराय को पक्की बनवाए। यह मुहत्ला घीहट्टा के स्थान पर तभी से औरगाबाद कहा जाने लगा। बैरवन और महगजगज में स्थापित चीनी कारखानो के अन्तिम पुरुष श्री मनोहर माहु रहे। इनके जीवन के शेष दिनो मे -अठारहवी शती के उत्तरार्द्ध मे-कानपुर जा रहो मात नाव चीनी गगा डब गई, फलत. व्यवसाय उच्छिन्न हो गया। कारखानो मे केवल शीरा और जमी बचा-पजी भी नहीं रही जिससे उत्पादन हो सके। वैरवन के कारखाने के आसपास कुछ कृषि-भूमि थी जिसका उपयोग प्राय. चीनी उत्पादन से सम्बन्धित रहा। अब उम पर हल चलने लगा और कारखानो में बचे शीरे-जसी मे बनी पीनी तम्बाक ममीपवर्ती बाजार मोहन- सराय मे विकने लगी। मोहनमराय बनारस से प्राय. पांच कोस दूर कलकत्ता से पेशावर जाने वाले मुख्य मार्ग (ग्राण्ड ट्रक रोड) पर अवस्थित है। बनारस आने और यहा से जाने वालो का एक पदाव था जिसे यात्री और फौजी सैनिक पोषित करते और कभी-भभी लट भी लेते थे। बन-बन कर उजड़ने और फिर बसने वाले इम केन्द्र पर विस्थापित और पुनः स्थापित होनेवाली हमारी वश-परम्परा के शेष- पुरुप श्री मनोहर साहु विपन्न-प्राय जीवन का यापन पुरुषार्थ और साहस से करने लगे। इनके चार पुत्र रहे : ज्येष्ठ श्री गणेश साह कानपुर मे बाकी पडी रकमो की वसूली के लिए गए किन्तु वही बस गए। कदाचित लहना वमूल करके लाते तो १८२ : प्रसाद वाङ्मय
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