पूजी के अभाव में व्यवसाय समाप्त न हुआ होता और परिवार भी तितर-बितर न होता किन्तु मानव स्वभाव ! दूसरे पुत्र श्री भिक्षुक और चौथे पुत्र श्री बिहारी बनारस में क्रमशः वरुणा तट पर और औरंगाबाद में बसे। तीसरे पुत्र श्री जगन साहु पिता का हाथ बटाते रहे । मोहनसराय के अध्यवसाय को पारिवारिक योगक्षेम के लिए अपर्याप्त देखकर वे उत्पादनों को बनारम लाकर बेचते और यहां से कुछ खूशबू मसाले भी तम्बाकू के लिए ले जाते । फलत: इस संकल्प की सिद्धि मे वे- जगन साहु अरुणोदय होते-होते माल और काटा-बटखरा सिर पर लेकर चलते और सूर्यास्त तक बैरवन लौट जाते । तब के बनारस का नकशा देखने से ज्ञात होगा कि लखनऊ-इलाहाबाद की मार्गमन्धि से शहर बनारस मे घीहट्टा (औरगजेब द्वारा पक्की सराय बनवाए जाने के बाद औरंगाबाद) के चौराहे से मीधे पूर्व दालमण्डी होती सडक रानीकुंआ तक जाती है, जहां से चली पतली गलिया आज भी विद्यमान है। दालमण्डी के मध्य से जो मार्ग दक्षिण की ओर घुघरानी गली- चाहमहिमा होते होजकटोरा से गगा तट तक जाती थी उसी पर एक तिरमुहानी है-जहा तीन मुहल्लों की सन्धि है- बडादेव, टेढ़ीनीम और हौजकटोरा की। इसी तिरमुहानी पर श्री जगन साहु जहाँ तम्बाकू बेचते थे वही उनके पौत्र द्वारा स्थापित गणपतेश्वर लिंग का शिवालय विद्यमान है। व्यवसाय के लिए स्थलमार्ग तब निरापद नही रह गया था। जब तक अनेक ब्यवसायी एक काफिला बनाकर न चले और आरक्षी साथ न रहे सुरक्षित यातायात असम्भव था। भारत का दुर्ग-द्वार तो टूट चुका था, शको और हूणो का स्थान तातार, मंगोल, इरानी, दुर्रानी. तुर्क, अफगान लेने गए । बैरवन के समीप की काशी के प्रत्यन्त की बाजार मोहनमराय की जिम राजमार्ग पर अवस्थिति है वही कलकत्ता से पेशावर वाली सड़क ग्रेण्ट-ट्रंक रोड है। आये दिन सोनकों का भी कियत्कालिक पड़ाव वहा होता था। हुक्के पर पीने वाली और चूने से मलकर खाने वाली तम्बाकू का 'अमल' सैनिकों और असैनिको मे प्रचलित रहा। अफगानी और अंग्रेज फौजियों को नसवार अर्थात् संघने का भी अभ्यास रहा । वास्कोडिगामा मे अमेरिका और तम्माकू की जानकारी संग-संग की और जिस तम्बाक को वे अपनी भाषा में 'कूया तम्बा' कहते थे उसे योरुप मे प्रचारित करने लगे। यद्यपि वहां के सभ्य समाज में तब यह निन्दनीय ही रहा किन्तु अमल की वस्तु होने के कारण इसे व्यावसायिक बढत मिलती गई । पुर्तगाली व्यापारियों ने सूरत में अपनी जो पहली कोठी खोली उसमें यह पदार्थ आने लगा, वहीं से प्रचारित होते-होते दिल्ली के शाही दरबार में भी यह प्रविष्ट हो गया। सूरत की कोठी के व्यवसाय का यह एक मुख्य पदार्थ हो गया था इसी कारण इसे सुरती कहा जाने लगा, श्री कुलदेवताय नमः : १८३
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