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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/२८४

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और पुर्तगाली 'कूया तम्बा' ने 'तम्बाकू का रूप ले लिया। अपने मूल जन्म स्थान क्यूबा मे वहा के निवासी अग्रेजी के वाई अक्षर के आकार के बने लकड़ी के उपकरण से इसका धूम्रपान करते थे। हुक्का उसी का प्रतिसंस्कृत रूप है। श्री जगन साहु के उत्पादन की लोकप्रियता बढ़ती गई। जितना माल वे प्रातः लाते सब दोपहर तक बिक जाता । तब, वही माल बनाने के लिए किराये पर उन्होने घर लिया। उसकी बाहरी दालान मे दूकान चली। क्रमशः बैरवन से सम्पर्क कम होने लगा। महराजगज का कारखाना तो समाप्त हो ही चुका था किन्तु बैरवन मे कारखाने की भूमि और खेत बचा रहा, घर और कारखाना गिर कर डीह बन गया जिस पर चुनापि शिलिग स्थापित है मेरे पितामह के काल तक खेत पर स्वामित्व रहा, किन्तु उन्होने स्थानीय पुरोहित को उसे दान कर दिया। डीह और पुराने कारखाने का समीपवर्ती ध्वस अभो विद्यमान है जिसे स्थानीय लोग 'सुघनी माहु का डीह' कहते है। सुंघनी साहु कुल की जाति-सज्ञा ‘कान्यकुज नेश्य हलवाई है। उसके आविर्भाव और विकास का एक सक्षिप्त मिहावलोकन आवश्यक हो रहा है। प्रसाद-साहित्य के सन्दर्भ मे इसवी प्रारागिकता का यथार्थ ध्रुवस्वामिनी की रचना में निहित है। एक ऊंची जाति के महानुभाव ने कभी व्या करते कहा 'प्रमाद जो आपलोगो की जात मे तो सगाई भी चलती है', उनर थ। 'लेकिन भगाई नहीं'। यह हमी-मजाक की बात तो आई गई पार भई- किन्तु दे गई उम 'ध्वस्वामिनी' को जिसमे पुनर्भू अर्थात मगाई के प्रमंग का शास्त्र-परक और व्यवहार-सिद्ध विवेचन हुआ है। कभी- कभी ऐसे व्यग भी प्रसाद वामय की श्री वृद्धि कर गए है । जैसे, उन्हे मालिश कराते देखकर मशी प्रेमचन्द ने कहा था प्रमाद जी आप तो गुण्डे जमे लगन है' । हास्य- विनोद के बाद मशी जी ने 'हम' क कहानी अक के लिए एक कहानी को फरमायश की । कुछ समय बाद मशीजी को कहानी अक के लिए 'गुण्डा' कहानी मिली। अस्तु, इम जाति-मज्ञा के तीन शब्दा म प्रथम शब्द कान्यकुब्ज स्थानवाची, दूसरा वैश्य वर्णवाची ओर तीमरा श्रेणीवाची शब्द हलवाई है। आर्यों की पुराकालीन ममाज सरचना म मष्टिवाची शब्द जन और वि रहे। व्रजन गुण विशिष्ट जो वर्ग रहा उसमे जन सस्था का बोध होता है और यह. कभी बडा वर्ग रहा क्योकि मख्या विस्तार के माथ नये नये क्षेत्रो की-- जो प्राय: जगल रहे-खोज और उन्हे आवास और कृषि के योग्य सुधारने के आवश्यकता रही। विश वर्ग में वे आए जो मुधरी भूमि को उपयोगी बनाने के लिए भिन्न भिन्न स्थानो पर ग्राम-सस्थित होते गए । उनका -गं व्यवस्थात्मक व्यवमाय का रहा। और अधिक उन्नत व्यवस्था ने कार्य-विभाजन को अनिवार्य कर दिया। जो बौद्धिक कार्य मे लगे उन्होने विश के शेष भाग से अपनी कुछ पृथक इयत्ता स्थिर कर ब्राह्मण हुए। रक्षा और शासन के १८४ प्रमाद वाङ्मय